पृथ्वी ही एक मात्र ऐसा ग्रह है जो प्राणी मात्र के रहने के लिए है। आज इस ग्रह पर मंडराते खतरे को लेकर पूरी दुनिया चिंतित है। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर संकट के ऐसे हालात क्यों बने? जवाब भी साफ है कि अपने लिये ज्यादा से ज्यादा सुख साधन, विलासिता और एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में इंसान ने खुदकुशी का इंतजाम कर लिया है।
वे तमाम साधन हमने पैदा कर लिए जो समूची सृष्टि के लिए खतरनाक हो सकते हैं। हमने यह नहीं सोचा कि जिस विकास की हम बात करते हैं उसकी आखिर हमें कितनी कीमत चुकानी पड़ रही है। सवाल है कि क्या खुद की बर्बादी को आमंत्रित करने वाला ऐसा ही विकास चाहते हैं हम?
हमें यह समझना होगा कि आतंकवाद से ज्यादा खरतनाक है पर्यावरण का विनाश। हम आतंकवाद के खतरे से तो आगाह हैं, लडऩे को तैयार भी लेकिन प्रदूषण की समस्या से निजात पाने की हमारी कोशिश ऊंट के मुंह में जीरा सी लगती है।
जिस प्रकार आतंकवाद का कोई मजहब, कोई देश नहीं होता, उसी प्रकार प्रदूषण को भी समझना होगा। सरकारों की प्राथमिकता सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) है, पर्यावरण उनके लिए दोयम दर्जे की चीज है। कभी-कभी न्यायालयों की चिंता देखने को मिलती है लेकिन न्यायालय की भी सीमा है।
वे आदेश तो पारित कर सकते हैं लेकिन आमजन को ही समझना होगा कि पर्यावरण की क्षति अपूरणीय है। नष्ट हुए पर्यावरण को किसी भी कीमत पर वापस नहीं लाया जा सकता। कोशिश बस इतनी ही हो कि जो विनाश हो चुका उसे स्वीकार कर लें पर भविष्य में और विनाश ना होने दें। हम उस अंधे मोड़ की तरफ न जाएं जहां से वापसी का कोई रास्ता ही नहीं।