डब्लूटीओ की स्थापना के बाद उसके नियमों की अनुपालना में देश कितने आगे बढ़े, इसके लिए दोहा में एक बैठक हुई, जिसके बाद समीक्षाओं का दौर जारी रहा है। वर्ष 2013 में इसी संदर्भ में मंत्रिस्तरीय सम्मेलन भी हुआ। इसमें भारत ने विकासशील देशों की लॉबीइंग की और कुछ आधारभूत शर्तों व आकलन के तरीकों में बदलाव की मांग की। इन्हें स्वीकार नहीं किया गया तो अस्वीकार भी नहीं किया गया। यानी, जब तक बदलाव से संबंधित फैसला नहीं हो जाता, यथास्थिति कायम रखी जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि इसी तरह के विवादित मुद्दों के संदर्भ में ‘पीस क्लॉज’ की व्यवस्था की गई है। यदि कोई मुद्दा ‘पीसक्लॉज’ में ले आया जाता है तो कोई भी विकसित देश इन मुद्दों पर शिकायत नहीं कर सकता। इसीलिए, शर्तों और आकलन के तरीके में जब तक परिवर्तन नहीं आता, तब तक कह सकते हैं कि फिलहाल कोई हानि नहीं हुई है।
सारी स्थितियों को समझने के लिए पहले हमें डब्लूटीओ और उसके बुनियादी पहलुओं को जानना होगा। अप्रेल 1994 में दुनिया में मुक्त या बाधा रहित व्यापार के उद्देश्य से विश्व व्यापार समझौता किया गया जो 1995 से प्रभाव में आया। इसने 1948 से चले आ रहे जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ (GATE) का स्थान लिया। इस विश्व व्यापार समझौते के तहत डब्लूटीओ की स्थापना हुई।
इस नए व्यापार समझौते में अनेक ऐसे नए व्यापार नियमों और शर्तों को शामिल किया गया, जो गेट में शामिल नहीं थे। उदाहरण के लिए इसमें कृषि क्षेत्र, कपड़ों और परिधानों को भी बाद में स्थान मिला। इसके साथ ही ट्रेड रिलेटेड इन्वेस्टमेंट मेजर्स (TRIMS) यानी व्यापार से संबंधित निवेश उपायों के साथ ट्रेड रिलेटेड इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट्स यानी व्यापार संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों को भी जोड़ा गया और विवाद निस्तारण व्यवस्था सुदृढ़ की गई। इसके साथ एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर (AOA ) यानी कृषि व्यापार से संबंधित शर्तों पर हस्ताक्षर भी हुए। इस कृषि व्यापार से संबंधित समझौते में बाजार पहुंच की बाध्यता, कृषि में समर्थन या सहायता को घटाने की बाध्यता और निर्यात में कमी की बाध्यता पर भी सहमति बनी।
इनके अलावा स्वच्छता के अंतरराष्ट्रीय मानक अपनाने पर सहमति बनी। साथ ही, कृषि से संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार भी इसमें शामिल किए गए, लेकिन भारत को कृषि में समर्थन या सहायता घटाने की बाध्यता को लेकर सबसे अधिक परेशानी आई।
उल्लेखनीय है कि किसानों को दो तरह से प्रोत्साहन या समर्थन मिलता रहा है। एक होता है उपज विशेष प्रोत्साहन और दूसरा गैर-उपज विशेष समर्थन, जिसमें सस्ती बिजली, खाद अनुदान आदि शामिल होते हैं। विश्व व्यापार समझौते के तहत इन दोनों को मिलाकर आधार वर्ष तक स्वीकृत सीमा में रख जाना था यानी कम करना था। यह आधार वर्ष रखा गया, 1986 से 1988 तक का औसत। विकासशील देशों के लिए यह स्वीकृत सीमा 10 फीसदी और विकसित देशों के लिए यह सीमा पांच फीसदी रखी गई। जब समझौता हुआ तो विकसित देशों ने उनके अपने व्यापार और निर्यात को प्रभावित होने से बचाने के लिए कुछ ऐसे प्रावधान बड़ी चालाकी से शामिल कर दिए, जिनका असर विकासशील देशों पर अब दिखने लगा है।
समझौते में अनुदान और प्रोत्साहन को तीन भागों ग्रीन, ब्लू व एंबर बॉक्स में बांटा गया। ग्रीन में वे प्रोत्साहन शामिल हुए, जिन पर कोई पाबंदी नहीं है यानी अनुसंधान व प्रशिक्षण पर खर्च, कीटों से व बीमारियों से बचाने आदि पर व्यय। ब्लू बॉक्स में किसानों को सीधे भुगतान, बीमा उपलब्ध कराना आदि शामिल किया गया। फिर, एंबर बाक्स में वे प्रोत्साहन शामिल किए गए, जिनसे बाजार प्रभावित हो सकता है।
तय किया गया कि कुल उत्पादन मूल्य का विकासशील देश 10 फीसदी और विकसित देश पांच फीसदी ही समर्थन दे सकते हैं। विकसित देशों ने अपने किसानों के समर्थन को ग्रीन और ब्लू बॉक्स में डाल दिया। दूसरी ओर, विकासशील देशों में किसानों का वर्गीकरण आसान नहीं होता। यहां अधिकतर लघु और सीमांत किसान हैं, जिन्हें समर्थन की बेहद आवश्यकता होती है। भारत का कहना है कि आधार वर्ष बदला जाए क्योंकि तब भारत में किसान की उपज का मूल्य बेहद कम था। उस आधार पर गणना करने से समर्थन का मूल्य ज्यादा नजर आता है किंतु हकीकत में ऐसा है नहीं। इस आधार वर्ष में मद्रास्फीति को भी जोड़ा जाना चाहिए, जिसे अभी माना नहीं गया है। इसी तरह प्रोत्साहन या समर्थन का आकलन कुल उत्पादन मूल्य के आधार पर किया जाता है, जबकि भारत में किसान बहुत-सी उपज का इस्तेमाल स्वयं के लिए करता है।
भारत का तर्क है कि किसानों के निजी उपयोग के बाद जो विपणन अधिशेष है, उस पर ही समर्थन मूल्य का आकलन होना चाहिए। इन्हीं भारतीय तर्कों को कनाडा और अमरीका ने अस्वीकार कर दिया है, वह भी केवल दालों के संदर्भ में। देर-सबेर भारत के तर्क न केवल समझे जाएंगे, बल्कि स्वीकार भी किए जाएंगे। तब तक भारत और अन्य विकासशील देशों को ‘पीस क्लॉज’ का सहारा लेना होगा। साथ ही इस प्रावधान को स्थायी रूप देने की भी जरूरत है।
(लेखक, केंद्रीय कृषि, लागत और मूल्य आयोग के अध्यक्ष रहे।)