फिल्म से बलबीर सिंह और बाबू के डी सिंह जैसे दिग्गज गायब
15 अगस्त को रीमा कागती के निर्देशन वाली फिल्म गोल्ड के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है। इस फिल्म में देशभक्ति का तड़का लगाने के चक्कर में तमाम तथ्यों के साथ ऐसी छेड़छाड़ की गयी है के ये फिल्म 1948 में हुए उस ऐतिहासिक पल को कुछ अलग अंदाज़ में दर्शाती है। 1948 के लंदन ओलंपिक खेलों में भारतीय टीम द्वारा जीते गए पहले स्वर्ण पदक पर आधारित इस फिल्म में ध्यानचंद, बलबीर सिंह, बाबू के डी सिंह जैसे दिग्गजों का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है। अक्षय कुमार की ‘गोल्ड’ फ़िल्म भारतीय हॉकी के सुनहरे इतिहास से पैसा तो कमाना चाहती है, लेकिन उस सुनहरे काल के सभी हीरो की याद मिटा देती है। क्या कारण है कि 1948 में स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम पर ये फ़िल्म आधारित है लेकिन सुपरस्टार खिलाड़ी बलबीर सिंह और बाबू के डी सिंह ग़ायब हैं। यही नहीं, इंग्लैंड के ख़िलाफ़ फ़ाइनल का स्कोर 4-0 की जगह 4-3 कर दिया, ताकि फ़र्ज़ी उत्तेजना पैदा की जा सके। हॉकी फ़ेडरेशन के अध्यक्ष नवल टाटा को वाडिया बना दिया, मैनेजर पंकज गुप्ता को बंगाली तपन दास बना दिया! भारत की महान हस्तियों की याद को यूँ मिटा देने की इस कोशिश को क्या कहा जाए, इस बारे में क्या किया जाए?
पहले भी करते आए हैं छेड़छाड़
ये पहली बार नहीं है जब अक्षय कुमार ने फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद के चलते तथ्यों से छेड़खानी की हो। इस से पहले साल 2016 में आई एयरलिफ्ट नामक फिल्म में भी बहुत कुछ गलत दिखाया गया था। सवाल वही उठता है कि आखिर क्यों हमारे फिल्मकार और धारावाहिक निर्माता हमारे इतिहास के साथ इतनी आजादी ले पाते हैं कि वे उसे जैसा और जहां चाहें मोड़ सकते हैं? क्यों हमारा समाज इसका विरोध नहीं करता? सिनेमा मनोरंजन का साधन है लेकिन जब भी इतिहास और सिनेमा को एक साथ जोड़ा जाएगा तब इस बात की संभावनाएं बनी रहेंगी कि इतिहास के साथ खिलवाड़ होगा। आज तो पौराणिक ग्रंथों और इतिहास पर धारावाहिक और फिल्म बनाने की होड़ सी लगी हुई है। इसकी बड़ी वजह यही है कि इनमें नाटकीयता भरपूर होती है और क्योंकि हमारा समाज इतिहास के साथ हर तरह के खिलवाड़ को स्वीकार कर लेता है, इसलिए निर्माताओं को इसमें कोई दिक्कत नहीं आती।