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1857 की क्रांति : खुद थे मारवाड़ रियासत के ताकतवर जागीरदार, फिर भी स्वतंत्रता की लड़ाई के नायक बने

locationपालीPublished: Aug 13, 2019 06:00:55 pm

Submitted by:

rajendra denok

आजादी के दीवान-1

thakur kushal singh

thakur kushal singh champawat aauva

Rajendra singh Denok

पाली.आऊवा. कल्पना करीए…करीब तीन हजार की आबादी वाले एक छोटे-से गांव आऊवा के कांतिवीरों ने कैसे फिरंगियों की ताकत को चुनौती दी होगी? जोधपुर रिसायत और अंग्रेजों की तुलना में बहुत कम सैनिक…अल्प संसाधन…फिर भी आजादी के दीवानों का जोश और जुनून इतना था कि फिरंगियों के छक्के छुड़ा दिए। फौलादी हौसलों के सामने अंग्रेजों और जोधपुर रियासत की सेना को भागना पड़ गया था।
आऊवा गांव भले ही छोटा था, लेकिन मारवाड़ रियासत में उसकी ताकत बड़ी थी। जोधपुर के प्रमुख आठ ठिकानों में एक आऊवा भी था। रियासत में अहम हैसीयत के बावजूद तत्कालीन ठिकानेदार कुशालसिंह चांपावत ने आजादी की राह चुनी और फिरंगियों की चूलें हिला दी।
8 सितम्बर 1857। मारवाड़ रियासत के छोटे से गांव आऊवा में हर-हर महादेव…फिरंगियों को मारो…जैसे उद्घोष से आसमां गूंज उठा। तत्कालीन समय में करीब तीन हजार की आबादी वाले आऊवा गांव मेंके आजादी के दीवाने अंग्रेज और मारवाड़ रियासत की सेना पर टूट पड़े। बिठौड़ा के निकट हुए रण में सामने अंग्रेज व जोधपुर रियासत की सेना टिक नहीं सकी। ठीक दस दिन बाद 18 सितम्बर 1857 को जार्ज लारेंस की अगुवाई में आऊवा पर फिर आक्रमण हुआ।
चेलावास के निकट ठाकुर कुशालसिंह और उनके वीर अंग्रेजों पर टूट पड़े। लॉरेंस को करारी मुंह की खानी पड़ी। अंग्रेज अफसर मॉक मेंसन मारा गया। क्रांतिकारियों ने उसका सिर काटकर किले की पोळ पर लटका दिया। बाद में अंग्रेजों ने बड़ी सेना के साथ आऊवा किले की घेराबंदी करवाई। कई दिनों तक चले संघर्ष के बाद तोप के गोलों और सुरंगों से किले और गांव को ध्वस्त कर दिया गया। आराध्य देवी मां सुगाली की प्रतिमा को भी खंडित कर दिया गया था।
जलाई थी आजादी की चिंगारी, यूं चुकानी पड़ी कीमत

आजादी की चिंगारी जलाने के लिए आऊवा ठाकुर कुशालसिंह चांपावत को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। जोधपुर रियासत के आऊवा ठिकाने को 8 मिसल का ओहदा प्राप्त था। अर्थात शासन के प्रमुख फैसले करने वालों में यहां के ठिकानेदार शामिल थे। 1857 से पूर्व प्रधान की पदवी भी आऊवा के ठिकानेदार को मिली हुई थी। शासक के प्रमुख सलाहकार की भूमिका प्रधान निभाते थे। उन्हें ज्यूडिशियल पावर भी था। किसी भी मामले में वह छह माह तक की सजा दे सकते थे।
आऊवा ठिकाने के अंतर्गत कुल 48 गांवों की जागीर थी। 1857 की क्रांति के बाद 36 गांव जब्त कर लिए गए। बाद में उसके अधीन केवल 12 गांव ही रहे। आऊवा को दोहरी ताजीम थी, जिसके तहत ठिकानेदार को राजा के बराबर सम्मान दिए जाने का प्रावधान था। क्रांति के बाद आऊवा को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। जननायक के रूप में याद ठाकुर कुशालसिंह के संघर्ष ने मारवाड़ का नाम भारतीय इतिहास में उज्ज्वल कर दिया। वे पूरे मारवाड़ में लोकप्रिय हो गए। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का नायक माना गया।
गौरवशाली इतिहास का गवाह है आऊवा

आऊवा गांव गौरवशाली इतिहास का गवाह है। क्रांतिवीरों ने मजबूत सत्ता को चुनौती देकर आजादी का बिगुल फूंका था। अंग्रेजों की मजबूत सेना को भी कई बार मुंह की खानी पड़ी थी। बाद में धोखे से आऊवा को ध्वस्त किया गया। आऊवा का इतिहास वर्तमान में एवं भावी पीढ़ी को देश के प्रति जज्बा जगाने जैसा है। सरकार को पूरी तवज्जो देनी चाहिए।
पुष्पेन्द्रसिंह चांपावत, आऊवा(ठाकुर कुशालसिंह चांपावत के छठे वंशज)

इतिहास का उचित संरक्षण मिले
आऊवा का इतिहास समृद्ध और गौरवशाली रहा है। भावी पीढ़ी को इससे राष्ट्रप्रेम की सीख मिलेगी। इतिहास को पर्याप्त संरक्षण मिलना चाहिए। पाठ्य पुस्तकों में क्रांतिवीरों की कहानियां शामिल की जानी चाहिए। पर्यटन की दृष्टि से भी आऊवा को तवज्जो दी जानी चाहिए।
राकेश पंवार, आऊवा निवासी एवं सामाजिक कार्यकर्ता

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