मां के समर्पण की तस्वीर उम्मेद के जेहन में हरदम रहती थी। इसलिए पहली तन वाह मां को ही समर्पित कर दी। उन्होंने मां के लिए चूडिय़ां बनवाई। सिंह कहते हैं, चूंकि पिता का देहांत हो गया था इसलिए मां ने चूडिय़ां पहनने से इनकार कर दिया। हालाकि, बेटे की जिद के आगे मां ज्यादा मना नहीं कर पाई।
सिंह कहते हैं, मुश्किल हालात में कॉलेज का सफर शुरू हुआ था। जब कॉलेज जा रहा था, रास्ते में एक दुकान से लाउड स्पीकर से ‘सुनके तेरी पुकार…संग चलने को कोई तेरे हो ना हो तैयार, हिम्मत न हार…चल चला चल’ सुनाई दिया। उस दिन के बाद ज्यों-ज्यों सफर चलता रहा, ये गीत मेरे कानों में गूंजता रहा। इससे प्रेरणा मिलती रही। सिंह कहते हैं, एक वक्त था तब मां के बोरला-कंठी गिरवी रखने पड़े थे। अब जब खुद ही बोरला-कंठी बनाता हूं तो मां का खाली शीश औऱ सूना गला जेहन में उभर आता है। ऐसा लगता है मानों चारों और पानी होते हुए भी मन बून्द-बून्द को तरस रहा है।
पिता की मंशा थी कि उनका बेटा पुलिस अधिकारी बने। पिता का सपना पूरा करने के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिए। बीमा निगम की नौकरी करते हुए पढ़ाई जारी रखी। दो साल बाद ही वे पुलिस सब इंस्पेक्टर बन गए। पुलिस में 20 साल तक की नौकरी में उप अधीक्षक पद तक का सफर तय किया। पुलिस अधिकारी रहते हुए उन्होंने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की। जयपुर का बहुचर्चित सुमेधा दुर्लभ जी अपहरण प्रकरण हो या तिब्बती महिला बलात्कार मामला, आरोपियों के गिरेबां तक पहुंचने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनको यूएनओ में भी सेवाएं देने का सौभाग्य मिला है। पुलिस नौकरी छोड़ बन गए जेवरात व्यापारी उम्मेद की मंजिल यहां तक ही नहीं थी। उन्होंने 2003 में पुलिस की नौकरी से अनिवार्य सेवानिवृत्ति ली और अमरीका चले गए। वहां उन्होंने आभूषण बनाने का व्यापार शुरू किया। 2010 तक वे न्यूयॉर्क के मेनहटन शहर में रहे। पिछले 7-8 साल से उन्होंने पुन: स्वदेश को ही अपनी कर्मस्थली बना लिया। जयपुर में जेवरात का व्यापार कर रहे हैं। उनका बेटा दिग्विजय सिंह अफ्रीका में आर्किटेक्ट है और बेटी डॉ. संयोगिता लंदन में डॉक्टर के रूप में सेवाएं दे रही है।