सार्जेंट ने मार ने दरवाजै टांकिया…….किल्लो आऊवो।
1857 की क्रांति के दौरान प्रदेश का आऊवा ठिकाना ऐसा था, जिसने पूरे ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर रखा था। इसी ठिकाने से उठी थी देश में पहली स्वातंत्र्य की चिंगारी। आऊवा के ठाकुर खुशालसिंह च पावत ने ब्रिटिश शासन को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दिया था। 1857 में जब ऐरनपुरा छावनी में सैनिक विद्रोह हुआ तब बागी सैनिकों ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए आऊवा से होते हुए दिल्ली की तरफ कूच किया। क्रांतिकारियों की दिल्ली कूच की सूचना आऊवा ठाकुर खुशालसिंह को मिली।
उन्होंने सभी बागी सैनिकों को अपने यहां शरण दी। ठाकुर खुशालसिंह के नेतृत्व में आऊवा पूरी तरह क्रांतिकारियों के गढ़ में तब्दील हो गया। इससे नाराज अंग्रेज अफसरों ने आऊवा पर धावा करने की योजना बनाई।
मारवाड़ रियासत जोधपुर के महाराजा त तसिंह ने अपने सैनिकों को ब्रिटिश सैनिकों के साथ आऊवा कूच का आदेश दिया। दोनों सेनाओं ने बिठुड़ा में डेरा जमा दिया। वहीं आऊवा से शिकस्त खा चुका सर हेनरी लॉरेंस भी आऊवा पर हमले की घात में था। 7 सितम्बर 1857 को जोधपुर के किलेदार अनाड़ सिंह और दीवान कुशलराज सिंघवी ने अलसुबह ही आऊवा पर आक्रमण कर दिया। आऊवा के क्रांतिकारी सेना पर टूट पड़े। ब्रिटिश सेना को हार का सामना करना पड़ा।
जोधपुर रियासत का पॉलिटिकल एजेंट मोंक मेसन लॉरेंस सहायता के लिए सीधा जोधपुर से सेना लेकर आऊवा की तरफ बढ़ा। चेलावास के निकट पहुंच युद्ध का बिगुल बजाया। उस समय क्रांतिकारियों का नेतृत्व शिवनाथ सिंह आसोप कर रहे थे। मोंक मेसन को सेना सहित आता देख क्रांतिकारी पूरे जोश के साथ ब्रिटिश सेना पर झपट पड़े। आउवा ठाकुर खुशालसिंह चम्पावत ने मोंक मेसन का सिर कलम कर आऊवा में एकत्र बागी सिपाहियों को सौंप दिया। सिपाहियों ने सिर को बरछी में पिरोकर पहले तो पूरे गांव में घुमाया। इसके बाद आउवा किले के मुख्य दरवाजे की प्राचीर पर टांग दिया।