लोक पर्व : हंसी-ठिठोली और उमंग का संदेश देती होली
Holi Festival 2020 : -एकल परिवारों में खत्म हो रही उमंग

पाली। Holi Festival 2020 : मनुष्य में काम-क्रोध मूल हैं। काम-क्रोध के शमन का महापर्व है होली। समाज के संगठन में विधि-निषेधों का होना जरूरी है। ऐसे में मनुष्य अपने मन में कई आवेग-संवेगों को दबाता है। दबे हुए आवेग कुंठा पैदा करते हैं और कुंठाग्रस्त लोग समाज को विकृत बनाते हैं। विकृतियों को दूर करने और संस्कारों को ग्रहण करने के लिए पर्वों की व्यवस्था की गई।
यह कहना है क्षेत्र के विद्वानों-विचारकों का, जिन्होंने होली के लौकिक महत्व पर चर्चा करते हुए इसकी आवश्यकता एवं उल्लास के प्रकटीकरण पर अपने बेबाक विचार रखे। उनका कहना था कि हमारी पर्व-संस्कृति विश्व में सबसे निराली एवं अनूठी है। यहां पर्व के बहाने काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह आदि विकारों को खुलकर जी लेने का संदेश भी दिया जाता है। उत्तरप्रदेश में कहावत है - फागुन जेठा-देवर लागै। फाल्गुन मास में जेठ भी देवर के समान ही लगता है। जिस तरह से देवर के साथ चुहलबाजी करते हुए भाभी को लज्जा प्रतीत नहीं होती, वैसे ही होली के पर्व में सभी के साथ हंसी-ठिठोली की जा सकती है। आज जबकि यौन शिक्षा की आवश्यकता पर विद्वानों में बहस छिड़ी है, ऐसे में होली का पर्व यह मनो विकारों को दूर करने का मजबूत माध्यम है। आज एकल परिवारों के दौर में होली जैसे पर्व की उमंग खत्म होती जा रही है। युवाओं-किशोरों में बढ़ती हुई आत्महत्या की प्रवृत्ति भी इसी विकार और कुंठा का परिणाम है।
वर्जनाओं के विद्रोह का पर्व होली लोक-पर्व है। लोक के रंग क्षेत्रभर को रंगीन बना देते हैं। लोक अपनी कई भावनाओं को मन में दबाकर रखता है। होली पर्व पर हंसी-ठिठोली के माध्यम से इन निषेध-वर्जनाओं के प्रति विद्रोह प्रकट किया जाता है। मन की भावनाओं को मन में दबाकर प्रकट करने से मनुष्य हलका हो जाता है। तनाव से दूर रहने का उत्कृष्ट माध्यम है। फाग गीतों में मन की इन्हीं दबी भावनाओं को प्रकट किया जाता है। पहले फाग सांकेतिक एवं साहित्यिक शब्दों में गाया जाता है, लेकिन लोक-पर्व होने से इसमें कई विकृतियां भी उत्पन्न हो गई और फाग का अर्थ फूहड़ गीतों से हो गया, जबकि परम्परा से देवों को रंग चढ़ाने के लिए फाग गाया जाता था। ईलोजी, जो भैरू के स्वरूप में पूजे जाते हैं। उन्हें भी संकेतों के माध्यम से रंग लगाया जाता है।
होलिका के जलने से बिखरे उल्लास के रंग
इस संबंध वरिष्ठ साहित्यकार अचलेश्वर आनंद का कहना है कि होली के प्रतीक देव इलोजी है। ये होलिका से विवाह रचाने आए थे, लेकिन होलिका प्रह्लाद को मारने के लिए जलती अग्नि में बैठ गई। वरदान प्राप्त होलिका जलकर भस्म हो गई। इलोजी का विवाह होली के दूसरे दिन तय था। इलोजी की बारात द्वार पर आ चुकी थी। होलिका के भस्म हो जाते से इलोजी आजीवन कुंवारे ही रहे। किंवदंती यह भी है कि वे आजीवन दूल्हे के वेश में ही रहे। सत्य की विजय होने व होलिका के जलने से जन सामान्य में उल्लास के रंग बिखर गए। इसलिए होली के दूसरे दिन रंग खेलने की परम्परा है। ईलोजी के माध्यम से मानव मन की यौन-विकृतियां भी बाहर आ जाती थी। यौन-शिक्षा की जरूरत आज इसलिए पड़ रही है कि इन पर्वों को मनाने के प्रति उल्लास-उमंग खत्म हो गया है। एकल परिवारों ने तो आग में घी डाला है। एकल परिवार और अध्ययन के बोझ तले बच्चों का उल्लास दब गया है। ऐसे में ये पर्व जीवन में उमंग के रंग भरने का संदेश देता है।
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