मेहनत रंग लाई सीता दसवीं के बाद एसटीसी में चयनित होकर अध्यापिका और लीला गरासिया ने समाज में पहली स्नातक बालिका होने का गौरव प्राप्त किया। आज दोनों ही सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापिका का दायित्व संभाल रही है। एक समय वह भी था, जब गांव में यातायात के साधन तक नहीं थे, आज दोनों बहनें पहाड़ी पर स्थित स्कूल में स्वयं की कार से आवाजाही कर रही हैं। बालिका शिक्षा के प्रति अब पूरी तरह समर्पित है। लीला व उसके साथियों की समझाइश का ही परिणाम है कि उसके ससुराल देवला (उदयपुर) के सीनियर स्कूल में बालिकाओं का नामांकन बालकों से अधिक है।
यों शुरू हुआ सफर
वर्ष 1984 का अगस्त माह, जब गांव में पहुंचे कुछ सर्वोदयी विचारकों की नजर शिक्षा से महरूम बालिकाओं पर पड़ी। उनके अध्ययन के लिए बातचीत की तो आर्थिक परेशानियों से लेकर समाज की परम्पराएं आड़े आई। कई बार समझाइश के बाद आखिर पांच बालिकाओं के परिजन राजी हुए। रानी शहर के पास स्थित एक बालिका शिक्षण संस्थान में इनके लिए शिक्षण व आवास की व्यवस्था की गई। समाज के कुछ लोग लगातार परिजनों पर उन्हें वापस बुलाने का दबाव बनाते रहे। इस बीच पांच बालिकाओं में से दो वापस चली आई और कुछ ने अनुत्तीर्ण होने पर स्कूल छोड़ दिया, लेकिन अपने हौसलों की उड़ान भरने के लिए सीता गरासिया वहां डटी रही। दूसरी कक्षा से लेकर दसवीं तक वहां पढ़ी। दसवीं में सप्लीमेंट्री आई तो किसी की मदद लेकर फीस भरी और बेहतर अंकों से उत्तीर्ण हुई।
अपनी साथी मोहनी व संगी गरासिया का हौसला बढ़ाकर उन्हें भी दसवीं करवाई। फिर एसटीसी कर तीनों ही अध्यापिका बनी। इस बीच बहन लीला गरासिया व जयंता गरासिया को भी पढ़ाया। लीला के स्नातक करने के बाद सीता ने भी स्नातक व स्नातकोत्तर किया। आज लीला भी सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापिका है तो छोटी बहन जयंता बतौर शिक्षाकर्मी स्कूल में कार्यरत है। पांच बहनों में से तीन अध्यापिकाएं और दो अभी अध्ययनरत हैं।
आसान नहीं रही शिक्षा की उड़ान
पहाड़ी इलाकों में छितराई बस्ती का गांव कोयलवाव। जहां लोगों के पास न पहनने के कपड़े और ना ही खाने को अनाज। शिक्षा से बच्चे महरूम, बालिका शिक्षा के प्रति सोचना तो दूर की बात थी। ऐसे में सीता, लीला व जयंता जैसी बालिकाओं ने अच्छे मार्गदर्शन की बदौलत शिक्षा को बदलाव का हथियार बनाया। खुद शिक्षित हुई, परिवार को शिक्षित किया और अब समाज की कई बालिकाओं को शिक्षा की लौ से बदलाव का उजियारा दिखा रही है। टापरे को पक्के मकान में बदल दिया है।
गांव की मिट्टी का जुड़ाव तो है लेकिन शहरीकरण में भी पूरी रच-बस गई है। बकौल सीता व लीला गरासिया, ‘न केवल आदिवासी समाज बल्कि अन्य बालिकाओं की शिक्षा के लिए लगातार प्रयासरत हैं। स्कूल में भी नामांकन बढ़ाने के लिए पूरा जोर लगाते हैं क्योंकि शिक्षा का महत्व हमें बरसों पहले समझ आ चुका है, जिसकी बदौलत ही यह मुकाम हासिल हो सका।’