यह अभी महज 50-51 साल का है। सिलिकोसिस पडीडि़त होने के कारण उसकी हालत यह हो गई है कि वह बीते कई महीनों से बिस्तर से भी उठ नहीं पा रहा है। बीते करीब 10 साल से वह बीमार है। 15-16 साल की उम्र से ही वह पत्थर खदानों में काम करने लगा था। 35-36 की उम्र होते-होते हालत यह हो गई कि वह बूढ़ा दिखाई देन लगा। बीते५-६ साल से उसे हर दो-तीन माह में अस्पताल में भर्ती कराना पड़ रहा था। अब उसकी हालत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। सिलिकोसिस औद्योगिक बीमारी के अंतर्गत आती है, लेकिन प्रशासन बीमारी से पीडि़त मजदूरों को चिन्हित ही नहीं कर रहा है। यदि सिलिकोसिस मरीजों को चिन्हित कर दिया जाए तो वे बाहर जाकर बेहतर इलाज करा सकते हैं।
इनकी हो चुकी मौत
केस-1
ग्राम मडैयन निवासी लाखन सिंह की महज 50 साल की उम्र में २३ जुलाई 2017 को मौत हो गई थी। उनकी पत्नी फूलरानी के अनुसार जब उनका विवाह हुआ था तब लाखन १४-१५ साल के ही थे और पत्थर खदानों में मजदूरी करते थे। महज 35 साल की उम्र से वे बीमार रहने लगे थे। करीब १५ साल बीमारी के बाद उनकी मौत हो गई। लाखन के बीमार रहने के बाद से उनके परिवार की हालत खराब हो गई थी और जितने रुपए वह मजदूरी करते थी उसका अधिकांश हिस्सा दवाओं में ही खर्च होता था। मृत्यु के बाद शासन की ओर से उनके परिवार केा तीन लाख रुपए की सहायता दी गई थी। यदि यह सहायता उनके मृत्यु के पूर्व दी गई होती तो वह बेहतर तरीके से इलाज करा सकते।
केस-2
ग्राम बडौर निवासी विसाली गौड भी 15-16 साल की उम्र से ही पत्थर खदानों में काम करने लगे थे। ४८ साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई थी। उन्हें करीब 34 से 35 साल की उम्र के बीच सांस लेने में परेशानी होने लगी थी। उन्हें सिलिकोसिस मरीज के रूप में चिन्हित किया गया था। इसी तरह से बाल किसन की ५० साल की उम्र में मौत हो गई थी। जिला अस्पताल में समुचित जांच और इलाज की सुविधा नहीं होने के कारण इन्हें समुचित इलाज नहीं मिल पाया था।
केस-3
धाम मोहल्ला निवासी श्याम लूनिया की भी महज ४९ साल की उम्र में सिलिकोसिस के कारण मौत हो गई थी। इन सभी को एक एनजीओ के माध्यम से फ्रांस के डॉक्टर द्वारा कराई गई जांच में सिलिकोसिस पीडि़त पाया गया था, जिसे बाद में सरकार ने सागर मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों से भी परीक्षण कराया था। अब बीते कई सालों से इस सिलिकोसिस पीडि़तों की पहचान नहीं की जा रही है। इससे सिलिकोसिस के नये मरीज सामने नहीं आ पा रहे हैं।
फेफड़ो में जम जाती है पत्थर की डस्ट
पत्थर खदान मजदूर संघ के अध्यक्ष यूसुफ बेग ने बताया कि सालों तक जो मजदूर पत्थर और हीरा की खदानों में पत्थर तोडऩे का काम करते हैं उनके सांसों के माध्यम से पत्थर की डस्ट फेफड़ों तक पहुंचकर इकट्ठा होने लगती है। सालों तक लगातार इसी तरह से डस्ट के फेफड़ों में जमने से फोफड़े ठोस होने लगते हैं और इससे पीडि़त इंसान को सांस लेने में परेशानी होती है। धीरे-धीरे वह धनुष की तरह टेढ़ा भी होने लगता है। उन्होंने आशंका जताई है कि पन्ना में सालों से पत्थर और हीरा की खदानों में काम कर रहे हजारों की संख्या में मजदूरों में सिलकोसिस के लक्ष्ण हैं, लेकिन जिले में उनका इलाज की सुविधा नहीं है। एक्सपर्ट डॉक्टर नहीं होने के कारण सिलिकोसिस पीडि़तों का इलाज सामान्य टीवी के मरीजों की तरह किया जाता है। इससे उनकी परेशानी और भी अधिक बढ़ जाती है।
हीरा और पत्थर खदानों में काम करते 80 हजार मजदूर
हीरा और पत्थर खदानों में सालों तक काम करने वाले मजदूर डस्ट के फेफड़ों में जमने से सिलिकोसिस रोग से पीडि़त हो रहे हैं। जिले में सिलिकोसिस विशेषज्ञ कोई डॉक्टर नहीं होने से मरीजों का समुचित इलाज नहीं हो पा रहा है। इससे कई मरीज असहनीय पीड़ा से तड़पते हुए तिल-लितकर मरने को मजबूर हैं। पूर्व प्रदेश सरकार द्वारा प्रस्तावित सिलिकोसिस निति को वर्तमान प्रदेश सरकार द्वारा लागू नहीं किए जाने के कारण सिलिकोसिस पीडि़तों का न समुचित उपचार हो पा रा है और न ही उनके पुनर्वास की व्यवस्था हो पा रही है। जिले में हीरे की वैध और अवैध करीब ३ हजार और बोल्डर व फर्शी पत्थर की वैध और अवैध करीब तीन सौ खदनें हैं। जिनमें ७० से ८० हजार मजजूरों के काम करने का अनुमान है। खदानों में काम करने वाले अधिकांश मजदूरों का श्रम विभाग में पंजीयन तक नहीं है।
मजदूरों की कोई कीमत नहीं समझ रहा है। ठेकेदार करोड़पति बन रहे हैं और मजदूर सिलिकोसिस असहनीय पीड़ा के कारण तिल-तिलकर मरने को मजबूर हैं। सरकार को चाहिए कि वह अपने डॉक्टरों से सिलिकोसिस पीडि़तों की जाचं कराए। सरकार सिलिकोसिस पीडि़तों के पुनर्वास नीति को मंजूरी दे।
यूसुफ बेग, जिलाध्यक्ष पत्थर खदान मजदूर संघ
एक्स-रे के माध्यम से सिलिकोसिस रोगियों की पहचान की जाती थी। अब मशीन की सुविधा है। यहां कोई विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है।
डॉ. डीके गुप्ता, नोडल अधिकारी क्षय विभाग