scriptडॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राजस्थान ने कैसे दिया नया जीवन? | Dr. Rajendra Prasad got new life in Rajasthan | Patrika News

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को राजस्थान ने कैसे दिया नया जीवन?

locationपटनाPublished: Dec 01, 2018 04:58:59 pm

Submitted by:

Gyanesh Upadhyay

देश के प्रथम राष्ट्रपति को दमा था और जब ज्यादा बीमार पड़ते थे, तब राजस्थान आकर स्वास्थ्य लाभ करते थे।

देश के प्रथम राष्ट्रपति को दमा था और जब ज्यादा बीमार पड़ते थे, तब राजस्थान आकर स्वास्थ्य लाभ करते थे।

देश के प्रथम राष्ट्रपति को दमा था और जब ज्यादा बीमार पड़ते थे, तब राजस्थान आकर स्वास्थ्य लाभ करते थे।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की जयंती – 3 दिसंबर
पटना। भारत के प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद नामी वकील थे। वर्ष 1917 में चंपारण आंदोलन के साथ ही महात्मा गांधी के संपर्क में आए और उनका जीवन देश को समर्पित हो गया। अपने घर-परिवार का काम छोडक़र वे महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी की सेवा में ही लगे रहते थे। वे एक बार बहुत ज्यादा बीमार पड़ गए, सांस और दमा की बहुत तकलीफ हो गई। तब वे आराम करने सीकर, राजस्थान गए थे और तब जाकर उन्हें नया स्वस्थ्य जीवन मिला।

दो बार लंबे समय तक राजस्थान में रहे
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पहली बार वर्ष 1940 में मजबूर होकर आराम करने सीकर, राजस्थान आए थे और दूसरी बार वर्ष 1946 में आए थे। दोनों ही बार उन्हें राजस्थान आकर ही आराम मिला। उन्हें दमे के बहुत जबरदस्त शिकायत थी। दमा अनियमित दिनचर्या और अत्यधिक मेहनत की वजह से बहुत बढ़ जाता था। चूंकि राजस्थान की जलवायु शुष्क है, इसलिए यहां सांस के रोग के उपचार को बल मिलता है।

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राजस्थान में ही लिखी आत्मकथा
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद राजस्थान से बड़ा स्नेह करते थे। सुखद संयोग है कि उन्होंने आत्मकथा लिखने की शुरूआत सीकर में की थी और समापन भी यहीं पिलानी में किया। 1940 में उनका स्वास्थ्य खराब हुआ था और बजाज समूह के संस्थापक उद्यमी-समाजसेवी सेठ जमनालाल बजाज उन्हें अपने साथ सीकर ले आए थे। सीकर में बजाज के गांव का नाम काशी का बास है। काफी समय से राजेन्द्र प्रसाद से लोग निवेदन कर रहे थे कि आप आत्मकथा लिखिए। पिलानी में आराम करने के दौरान राजेन्द्र प्रसाद ने आत्मकथा लिखने की शुरुआत की। सुबह सबके उठने से पहले ही वे लिख लिया करते थे। उनके सचिव को भी काफी दिन बाद पता चला कि राजेन्द्र प्रसाद कुछ लिख रहे हैं। बाद में आत्मकथा का बड़ा हिस्सा उन्होंने जेल में रहते लिखा और अंतत: पिलानी आकर ही स्वास्थ्य लाभ करते हुए अपनी लगभग 755 पेज की आत्मकथा का समापन किया। खास बात यह थी कि उनकी आत्मकथा मूल रूप से हिन्दी में ही लिखी गई।

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