प्र. – भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। क्या आज के परिदृश्य में आपको हमारे लोकतंत्र में कोई खामी नजर आती है?
भारत बदल गया है और यह तेजी से बदल रहा है। वक्त बीतने के साथ-साथ हमारा लोकतंत्र पहले से ज्यादा परिपक्व हो रहा है, लेकिन एक कमी महसूस की जा रही है – मजबूत विपक्ष की। लोकतंत्र को जनता के लिए कारगर बनाने के लिए यह जरूरी है कि विपक्ष मजबूत और प्रभावी हो। तभी वह एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभा सकता है। सत्तारूढ़ दल लोककल्याण के लिए सही नीतियां बनाएं औऱ उनका ठीक से क्रियान्वयन करें, इसके लिए विपक्षी दल को हमेशा सजग करने की जरूरत होती है। विपक्षी दल से सबकी यह अपेक्षा रहती है कि वह सरकार की गलत नीतिया का विरोध करे, उसे सही काम करने के लिए प्रेरित करे, सरकारी नीतियों में सुधार के सुझाव दे और जहां तक संभव हो, भ्रष्टाचार की संभावना को कम करके देश के विकास और राष्ट्रनिर्माण में योगदान दे।
प्र. क्या राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विपक्षी दल की भूमिका का निर्वहन करने में कांग्रेस सफल रही है?
कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति लगातार कमजोर हो रही है और इसके साथ ही, संसद के भीतर और बाहर, दोनों ही जगह वह देश को एक मजबूत और भरोसेमंद विपक्ष देने के मामले में अक्षम साबित हो रही है। कांग्रेस ने करीब 60 साल तक देश पर राज किया और कई महान नेता देश को दिए। दुर्भाग्य से, भारत का सबसे पुराना राजनीतिक दल अपने इतिहास की सबसे कम संसदीय उपस्थिति के साथ सदी की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है। एक मजबूत नेतृत्व का अभाव, बहुत कम राज्यों में सरकार, कई युवा और वरिष्ठ नेताओं का या तो पार्टी छोड़ना या फिर निष्क्रिय रहना – इन सभी चुनौतियों ने कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। कांग्रेस को अभी भी भाजपा के खिलाफ मुख्य राष्ट्रीय विपक्षी दल भले माना जाता है, लेकिन कई राज्यों में कांग्रेस अब स्थानीय गठबंधनों में भी एक कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका निभा रही है। तमिलनाडु, बिहार और महाराष्ट्र ऐसे राज्यों के उदाहरण हैं।
प्र. आज के राजनीतिक परिदृश्य में कौन-कौन से नेता विपक्ष को मजबूत नेतृत्व देने के दावेदार बनकर उभरे हैं?
देखिए, कांग्रेस कमजोर हो रही है, तो दूसरी तरफ क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में मजबूत होते चले जा रहे हैं। अभी पिछले दिनों ही पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने भारी बहुमत से चुनाव में जीत हासिल की थी। तमिलनाडु में डीएमके के एमके स्टालिन जीते और उन्होंने राज्य की सत्ता में वापसी की। उधर, महाराष्ट्र में अभी भी शरद पवार की तूती बोलती है। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में, राजनीतिक शक्ति के मामले में भाजपा और कांग्रेस महत्वपूर्ण नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा जैसे राजनीतिक दल कमजोर भले नजर आते हों, लेकिन आज भी वे राज्य में कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा मजबूत हैं। बिहार में भी कांग्रेस लालू प्रसाद यादव की राजद के सहयोगी दल की भूमिका में है। एक समय में देश के प्रमुख राजनीतिक दलों में गिनी जाने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां अब केवल केरल में सिमटकर रह गई हैं और राष्ट्रीय स्तर पर अप्रासंगिक-सी हो गई हैं।
प्र. तो यह है आज देश की राजनीतिक वास्तविकता। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि राष्ट्रीय स्तर पर कौन करेगा विपक्ष का नेतृत्व?
पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित अधिकांश क्षेत्रीय दलों के नेताओं की राष्ट्रीय महत्वकांक्षाएं हैं और उनमें से कुछ कांग्रेस के साथ जूनियर पार्टनर के रूप में रहना पसंद नहीं करते हैं। स्टालिन भले ही खुद को नेतृत्व के लिए दावेदार के रूप में सामने न रखते हों, लेकिन मोदी औऱ भाजपा का मुकाबला करने के काम में ममता बनर्जी खुद को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और सफल नेता मानती हैं।
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राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले अनुभवी शरद पवार महाराष्ट्र में काफी मजबूत हैं और यूपीए में भी उन्हें काफी सम्मान प्राप्त है, इसलिए वह भी भाजपा के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व करने के दावेदार हैं। इनमें से ज्यादातर नेता राहुल गांधी के साथ काम करने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि कांग्रेसी नेता की नेतृत्व क्षमता पर कई बार सवालिया निशान लग चुके हैं।
प्र. – ऐसे हालात में क्या ये क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के साथ एकजुट होकर भाजपा और मोदी के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बना सकेंगे?
मोदी और भाजपा के खिलाफ एकजुट विपक्ष के नेता के रूप में यदि राहुल गांधी के नाम पर विपक्षी दलों के बीच एकमत नहीं बनता, तो स्वाभाविक रूप से अन्य नामों पर चर्चा की जाएगी। पर सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस ममता या पवार के नाम पर मान जाएगीऔर नेतृत्व करने के लिए उनका समर्थन करेगी? क्या राज्यों की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की जूनियर पार्टनर बनने के लिए तैयार हो जाएगी। इन सवालों का जवाब देना इतना सरल नहीं है। इस पूरे मामले में एक बात स्पष्ट है, नरेंद्र मोदी ने पिछले 7 साल तक सत्ता के मैदान में पूरी मजबूती से खड़े रहने के दौरान किसी मजबूत विपक्ष का सामना नहीं किया। क्या यह भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए ठीक है? पीएम मोदी ने स्वयं कहा है, ‘संसदीय लोकतंत्र में एक सक्रिय, विश्वसनीय और मजबूत विपक्ष की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।’
सभी विपक्षी दल पीएम मोदी की लोकप्रियता से वाकिफ हैं और जब तक वे एक साथ नहीं आएंगे, वे शक्तिशाली प्रधानमंत्री को टक्कर देने में कभी सक्षम नहीं हो सकेंगे। लेकिन सवाल फिर भी अपनी जगह बना हुआ है, ‘आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन?’
(पीकेडी नांबियार एक राजनीतिक विश्लेषक हैं। अनेक टीवी चैनलों पर वह राजनीतिक हालातों का गहराई से विश्लेषण करते देखे जा सकते हैं।)