इस बात को जानने के लिए जम्मू और कश्मीर में जातीय, धार्मिक और भौगोलिक आधार पर वोटों के समीकरण को समझना जरूरी है। वहां पर विधानसभा की कुल 87 सीटें है। दो विधायक एंग्लो इंडियन समुदाय से नामित किए जाते हैं। यानि कुल सीटों की संख्या 89 है। पूरे जम्मू और कश्मीर में भाजपा का प्रभाव केवल जम्मू क्षेत्र में है। कश्मीर घाटी और लद्दाख क्षेत्र में भाजपा कहीं नहीं है। जबकि सबसे अधिक विधानसभा की सीटें कश्मीर घाटी में है। इस क्षेत्र में पीडीपी की पकड़ सबसे ज्यादा मजबूत है। कश्मीर घाटी में मिले समर्थन के बल पर ही महबूबा सीएम बन पाई। इन बातों को जानते हुए भी भाजपा ने पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार इसलिए बनाई ताकि लद्दाख और कश्मीर घाटी में पार्टी का जनाधार बढ़ाने का अवसर मिल सके। पिछले तीन सालों में पार्टी ऐसा नहीं कर पाई। जबकि पीडीपी पिछले तीन सालों में अपने एजेंडों को लागू करने में बहुत हद तक सफल रही। इतना ही नहीं पत्थरबाजी और आतंकी घटनाओं को महबूबा का मौन समर्थन मिलने भाजपा अलोकप्रियता का शिकार हुई। यही कारण है कि भाजपा ने बड़े लाभ के लिए महबूबा सरकार कुर्बान कर दी। पार्टी के लिए ऐसा करना मुफीद इसलिए भी है कि भाजपा के पास वहां पर खोने के लिए कुछ नहीं है।
एक बात और है। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल जिस तरह से रोहित बेमुला, दलितों की उपेक्षा, जेएनयू प्रकरण, कैराना उपचुनाव जैसे मुद्दों को लेकर जिस तरह से लामबंद हो रहे हैं पार्टी उसे गंभीरता से ले रही है। विपक्ष के इन तौर तरीको से भाजपा हाईकमान को लग गया है कि 2019 का चुनाव केवल विकास के नाम पर नहीं लड़ा जा सकता है। पार्टी यह तय मानकर चल रही है कि उसे 2019 में चुनाव जीतने के लिए वोट पोलराइजेशन की राजनीति करनी ही होगी। साथ ही 2019 के चुनावों में सोशल इंजीनियर का भी कमाल दिखाना होगा। विपक्ष के इस लामबंदी को तोड़ने के लिए भाजपा के पास अब एक ही विकल्प है और वो हिंदू अस्मिता के के नारे को बुलंद करना। ताकि जाति के बैरियर को तोड़कर भाजपा दोबारा केंद्र की सत्ता में वापसी कर सके। भाजपा का राजनीतिक बेस यही है। इस राजनीति में अमित शाह और पीएम मोदी को मास्टर माना जाता है। लेकिन महबूबा सरकार में रहते हुए हिंदू हित और अस्मिता की बात कर पाना आसान नहीं होता। लिहाजा भाजपा ने बड़े लाभ के लिए छोटे नुकसान को उठाना ज़्यादा फायदेमंद समझा है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस फैसले के लिए भाजपा ने न तो राज्य में पिछले दिनों अपने तेवर बदले, न विरोध जताया, न महबूबा मुफ्ती को इसकी आहट लगने दी।