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2 से 300 के पार पहुंची बीजेपी, लेकिन 43 से घटकर 3 पर आ गए वामपंथी

locationनई दिल्लीPublished: May 24, 2019 05:53:47 pm

Submitted by:

Saurabh Sharma

2019 के लोकसभा चुनाव में मात्र 3 सीटों पर सिमट गया सीपीआईएम
43 सीटों के साथ 2004 के चुनावों में सीपीआईएम का रहा था सबसे बेहतरीन प्रदर्शन
1967 में लड़ा था पहली बार लोकसभा चुनाव, पाई थीं 19 सीटें

CPIM

ढह गया वामपंथियों का ‘लाल किला’

नई दिल्ली। देश में मोदी मैजिक की बात हो रही है। बंगाल में ममता बनर्जी को मिली कड़ी टक्कर की चर्चा हो रही है। अमेठी में राहुल गांधी की हार को लोग नहीं पचा पा रहे हैं। लेेकिन कोई भी वामपंथियों की चर्चा नहीं कर रहा है। देश में करीब 52 सालों से अपनी जड़ों को मजबूत किए हुए वामपंथी नेता इस लोकसभा चुनाव में पूरी तरह से धराशायी हो गए। सीपीआई ( मार्क्र्सवादी ) पार्टी इस बार मात्र 3 सीटों पर सिमटकर रह गई। मतलब साफ है कि वामपंथियों का देश से ‘लाल किला’ पूरी तरह से नेस्तानाबूत हो गया। आखिर इन कुछ सालों में ऐसी कौन सी बातें हुई जिनकी वजह से वामपंथियों का सूपड़ा कुछ इस तरह से साफ हुआ, जानने की कोशिश करते हैं…

52 साल पहले की थी 19 सीटों से शुरूआत
1967 का वो जब देश में लाल बहादुर शास्त्री के बाद इंदिरा गांधी के हाथों में देश की कमान आई थी। 1967 के लोकसभा चुनावों में सीपीआईएम ने पहली बार 59 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा और 19 सीटों पर जीत हासिल की। उसके बाद 1971 में अपनी सीटों में और इजाफा करते हुए लोकसभा चुनाव में 25 सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया। देश में इस बात का अहसास कराया कि देश में वामपंथी सोच को मानने वाले लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है। 1977 के चुनाव में सीटों की संख्या (17) कम रही, लेकिन 1980 के चुनावों के चुनावों में वामपंथियों ने 37 सीटों के साथ देश में लाल तिरंगा लहरा दिया।

सीपीआई एम का शुरूआती दौर

लोकसभा चुनावसीटों की संख्या
196719
197125
197717
198037
198422
198933

अस्थिर राजनीति के दौर में स्थिर रहा वामपंथ
90 का दशक देश की राजनीतिक इतिहास का सबसे खराब और अस्थिर दौर कहें तो गलत नहीं होगा। इसका कारण है क्योंकि 1991 में नरसिम्हाराव की गठबंधन की सरकार से कब कोई अपने हाथ खींच ले पता नहीं था। उसके बाद 1996 से 1999 के बीच देश में चार बार चुनाव हुए। लेकिन सीपीआईएम ने राजनीति के इस अस्थिर दौर में अपनी स्थिरता को बनाए रखा। 1991 में 35, 1996 में 32, 1998 में 32 और 1999 में 33 सीटें सीपीआईएम अपने खाते में कायम रखने में कामयाब रही।

अस्थिर राजनीति में सीपीआईएम की संसद में स्थिरता

लोकसभा चुनावसीटों की संख्या
199135
199632
199832
199933

यूपीए में दिखी अहम हिस्सेदारी
2004 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो किसी को इस बात अंदाजा नहीं था कि अटल बिहारी वाजपेई दूसरी बार सरकार बनाने में कामयाब नहीं होंगे। लेकिन कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी उभरकर सामने आई। उस सोनिया ने अपने मैनेज्मेंट स्किल से सभी विपक्षी पार्टियों को एकजुट किया और यूपीए का गठन कर देश में सरकार बना डाली। उस सरकार में सबसे अहम रोल वामपंथियों का रहा। उस दौरान वामपंथियों ने अपने इतिहास की सबसे ज्यादा सीट हासिल की। 2004 के लोकसभा चुनावों में 43 सीटें हासिल की थी। उसके बाद 2009 के चुनावों में सीपीआईएम से लोगों का मोहभंग होना शुरू हुआ और 43 सीटों से वामपंथ 16 सीटों पर सिमटकर रह गया।

यूपीए में थी अहम भूमिका

लोकसभा चुनावसीटों की संख्या
200443
200916

पांच सालों में ढह गया वामपंथी किला
देश में 2014 और उसके बाद से वामपंथ का सबसे खराब दौर चल रहा है। जहां एक ओर वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ वेस्ट बंगाल में अपना सारा वजूद खो चुकी है। वहीं दक्षिण भारत के अपने मजबूत किलों में अपने आपको दोबारा से तलाशने में जुटी है। 2014 के चुनावों में देश में मोदी की लहर में वामपंथियों को काफी नुकसान हुआ। सिर्फ 9 सीटों में सिमटकर रह गई। अब 2019 के लोकसभा चुनावों में सीपीआईएम मात्र 3 सीटों पर सिमटकर रह गया। आने वाले लोकसभा चुनावों में मुमकिन है कि वामपंथी सोच को देश बचा हुआ हिस्सा भी पूरी जरह से नकार दे।

मोदी दौर में किला ढहा

लोकसभा चुनावसीटों की संख्या
201409
201903

क्या कहते हैं जानकर
इस बारे में सीपीआई एमएल के पूर्व सांसद सुधीर सुमन का कहना है कि वामपंथ और लेफ्ट के लिए काफी दुष्प्रचार किया जाता रहा है। पार्टी के नेता और कार्यकर्ता आज भी जमीन से जुड़े मुद्दों पर बात करते हैं। लेकिन मौजूदा समय में दूसरी पार्टियों के नेताओं द्वारा जिस तरह की राजनीति की जा रही है वो पूरी तरह से विकृत है। देश के माहौल को खराब कर दिया गया है। राष्ट्रवाद को जातीय समीकरण की चाशनी में डुबोकर लोगों के सामने पेश कर बहकाने की कोशिश की जा रही है। इसे बदलने की काफी जरुरत है। एक बार फिर से लेफ्ट के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपना जमीनी संघर्ष तेज करना होगा और लोगों से संवाद को बढ़ाना होगा।

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