राजनीति

कानपुर आईआईटी का दावा: पराली और पटाखे नहीं, सड़कों पर उड़ने वाली धूल हैं दिल्‍ली के सबसे बड़े दुश्‍मन

दिल्‍ली की आवोहवा में पीएम-10 में सबसे ज्यादा 56 फीसदी योगदान सड़क की धूल कणों की है। जबकि पीएम 2.5 में इसका हिस्सा 38 फीसदी है।

Nov 09, 2018 / 02:33 pm

Dhirendra

कानपुर आईआईटी का दावा: पराली और पटाखे नहीं, सड़कों पर उड़ने वाली धूल हैं दिल्‍ली के सबसे बड़े दुश्‍मन

नई दिल्‍ली। दिल्‍ली वायू प्रदूषण का स्‍तर जानलेवा हो चुका है। प्रदूषण के इस स्‍तर को लेकर लोग सोचते हैं कि दिवाली के पटाखे और किसानों द्वारा पराली जलाना प्रमुख कारण है। लेकिन सच ये नहीं है। इस गंभीर समस्‍या को लेकर कानपुर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (आईआईटी) की एक रिपोर्ट मे दावा किया गया है कि दिल्ली में सबसे ज्यादा प्रदूषण सड़कों पर उड़ने वाली धूल से हो रहा है। वाहनों से निकलने वाले धुएं का नंबर तो उसके बाद आता है। पीएम10 में सबसे ज्यादा 56 फीसदी योगदान सड़क की धूल कणों की है। जबकि पीएम 2.5 में इसका हिस्सा 38 फीसदी है।
कई कारण हैं जिम्‍मेवार
दिल्ली और एनसीआर में बढ़ते वायु प्रदूषण के लिए केवल एक दो नहीं बल्कि कई कारण जिम्मेवार हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह दिल्ली और आसपास के इलाकों की भौगोलिक स्थिति भी है। पिछले दिनों एक वैज्ञानिक शोध के जरिए दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण की तमाम वजहें जानने की कोशिश की गई। इस कोशिश में जो बातें सामने आई हैं वो इस प्रकार हैं।
भौगोलिक स्थिति
मौसम के लिहाज से दिल्‍ली लैंड लॉक्ड हिस्सा है। हिमालय का हिस्‍सा होने के कारण दिल्‍ली पर उत्‍तर भारत के मॉनसून का असर पड़ता है। यहां हवा की गति कम हो जाती है। इससे जहरीली हवा बाहर नहीं निकलत पातीं। दक्षिण भारत में हवा का प्रवाह तेज रहता है। दोनों तरफ समुद्र होने के कारण हवा में गति रहती है और प्रदूषण का उतना असर देखने को नहीं मिलता।
हवाओं में मौजूद धूल कण
मौसम का असर भी प्रत्यक्ष तौर पर प्रदूषण पर होता है। मार्च से जून के बीच थार रेगिस्तान की धूल तेज हवाओं में घुल जाती है। यही धूल कण सर्दियों में धूल, धुआं, नमी सबकुछ घुल-मिल कर प्रदूषण को चरम पर पहुंचा देते हैं।
बिजली संयंत्रों में इजाफा
नासा के आंकड़ों के मुताबिक 2005 से 2014 के बीच दक्षिण एशिया में वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य उद्योगों से नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भारी मात्रा में निकली। इसमें सबसे अधिक बढ़ोत्तरी गंगा के मैदानी इलाकों में दर्ज की गई। कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों में काफी इजाफा हुआ। इससे हवा में सल्फर डाइऑक्साइड की मात्रा दोगुनी हो गई है।
गोबर के उपलों से खाना बनाना
गंगा बेसिन में देश की करीब 40 प्रतिशत आबादी रहती है। ज्यादातर लोग आज भी लकड़ी और गोबर से बने उपलों से चूल्हा जलाकर खाना बनाते हैं। इससे काफी प्रदूषण फैलता है।

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