किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि वह व्यक्ति की निजता और गोपनीयता को भंग नहीं होने दे लेकिन जब सरकार ही गोपनीयता और निजता की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने लगे तो उसे कैसे रोका जा सकता है?
यह अपने आप में नैतिक प्रश्न बन जाता है और ऐसा नैतिक प्रश्न जिसका उत्तर तब देना कठिन हो जाता है जबकि एक सरकारी एजेंसी दोहरे मापदंड अपनाए। विकिलीक्स के एडवर्ड स्नोडेन ने इस तरह की पत्रकारिता की शुरुआत की।
इसके बाद विकिलीक्स ने अमरीका की राष्ट्रीय सुरक्षा ऐजेंसी (एनएसए) के दस्तावेज सबके सामने खोलकर रख दिए। फिर जर्मनी के दो पत्रकारों ने पनामा लीक्स के माध्यम से अन्य देशों में अपना धन छिपाकर रखने वालों के नाम उजागर कर दिए। लेकिन, यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ कि इस तरह से तो किसी की भी निजता और गोपनीयता का ही उल्लंघन होता है।
इसमें तर्क यह भी था कि देश की सुरक्षा के लिए ऐसा करना ठीक है। सर्वाधिक ताजा उदाहरण फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआई) और एप्पल कंपनी के बीच विवाद का है। अमरीका में मारे गए एक आतंकी के फोन से भेजे संदेशों की कूटभाषा (एनक्रिप्टेड मैसेज) को एफबीआई पढऩा और समझना चाहती थी लेकिन एप्पल कंपनी ने अपने फोन के संदेशों की कूटभाषा को सरलीकृत करने से यह कहकर मना कर दिया था कि यह गोपनीयता और निजता का मामला है उसके फोन इसी विशिष्टता के आधार पर बिकते हैं कि इनके माध्यम से भेजे गए संदेश अन्य कोई नहीं पढ़ सकता।
आलोचना भी एप्पल की बहुत हुई कि राष्ट्रीय हित में उसे संदेशों की कूटभाषा को पढ़ पाने के लिए एफबीआई की सहायता करनी चाहिए। हम इसे कैसे भुुला सकते हैं कि सीआईए के हाथ पाकिस्तान के ‘फाटा’ क्षेत्र में तैयार उर्दू में लिखा 32 पेज का एक दस्तावेज लगा था।
इसमें इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) के शीर्ष पदाधिकारियों ने भारत पर हमले की तैयारी का जिक्र किया था। इसका उद्देश्य अमरीका को इस युद्ध में भारत की मदद के लिए दबाव डालना और इसी युद्ध से विश्व में इस्लामी खलीफा शासन की शुरुआत करना था।
फाटा क्षेत्र खतरनाक तहरीक ए तालिबान का गढ़ है। और तब आईएसआईएस तालिबान से मिलकर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश सहित पांच देशों पर कब्जा कर ‘खुरासान प्रांत’ (आईएसआईएस—केपी) की नींव रखना चाहता था। सीआईए ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
इस परिप्रेक्ष्य में हम देखते हैं तो लगता है कि सीआईए ने बहुत ही अच्छा काम किया था। लेकिन, दूसरी दृष्टि से देखें तो विकिलीक्स के मुताबिक स्मार्ट फोन, स्मार्ट टेलीविजन और इंटरनेट के जरिए सीआईए यदि किसी की भी गतिविधियों पर नजर रखता है तो भी क्या उसे सही कहा जा सकता है?
इसे किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए सही नहीं कहा जा सकता। लेकिन, सवाल उठता है कि हम इस तरह के मामले में तब ही कुछ कर सकते हैं जबकि हमें पता हो कि हमारी गतिविधियों का पता लगाने के लिए हमारे डाटा इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
दरअसल, हमारे कौनसे डाटा इस्तेमाल किए जा रहे हैं कौनसे नहीं, हमें पता ही नहीं चलता। साथ ही हमें यह भी पता नहीं चलता कि आखिर करना क्या चाहते हैं। हमारे डाटा से वे हमारी और हमारे आसपास की गतिविधियों से हालात का अनुमान जरूर लगा सकते हैं।
हम क्या सोचते हैं और किस तरह से काम करते हैं, इस बारे में अन्यों को सरलता से जानकारी हासिल हो जाती है। यदि हम किसी के विरुद्ध कार्रवाई के बारे में सोचें भी तो हमारी स्थिति तो केवल उपभोक्ता की तरह की होती है। हम अन्य देश यानी अमरीका पर ही इस मामले ज्यादातर निर्भर हैं।
अधिकतर सर्वर अमरीका में ही उपलब्ध हैं। चाहे फेसबुक या फिर गूगल, वे ही ही सरलता से हमारे डाटा का इस्तेमाल कर सकते हैं, हम तो सिर्फ दर्शक बने ही रहते हैं। हमारे लिए तो बेहतर यह रहेगा कि हम इंटरनेट की गतिविधियों में तब ही पड़ें जबकि हमें बहुत जरूरत हो।
इसके अनावश्यक इस्तेमाल से हमें बचना ही बेहतर होगा। जरूरत इस बात की भी है स्मार्ट फोन इस्तेमाल किए जाएं या स्मार्ट टीवी, हमें इनका इस्तेमाल आवश्यकता के मुताबिक ही करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर जितनी बात करनी हो, संक्षेप में ही की जाए।
इंटरनेट इस्तेमाल करने के बाद उस प्रोग्राम को तुरंत बंद भी कर देना बेहतर रहता है। यह गोपनीयता और निजता के अतिरिक्त स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर रहता है।