राजनीति

सियासी दांवपेच से पांच साल में पलट गई घाटी की फिजां

क्या चुकानी पड़ेगी भाजपा-पीडीपी को गठबंधन की कीमत
वोटिंग प्रतिशत बढ़ना-घटना तय नहीं करता किसी पार्टी की जीत-हार
इस बार नए सिरे से होगा अलगाववादियों की चुनावी चालों का इम्तिहान

Mar 14, 2019 / 07:52 pm

Navyavesh Navrahi

सियासी दांवपेच से पांच साल में पलट गई घाटी की फिजां

आनंदमणि त्रिपाठी, श्रीनगर से
भारत का मस्तक, दुनिया का स्वर्ग और विश्व में सबसे अधिक सैन्य फुटप्रिंट वाले क्षेत्रों में से एक कश्मीर। पाकिस्तान, अफगानिस्तान व चीन से घिरे इस राज्य में सियासत कभी आसान नहीं रही। राजनीति में कश्मीर हमेशा मुद्दा बना रहता है। 2014 में यहां भाजपा और पीडीपी के बीच 3-3 सीटें जीती थी लेकिन अब खेल बदल गया है। पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस(एनसी) दोनों क्षेत्रीय दल जहां दिल्ली का दखल बताकर वोट बटोरने की कोशिश में हैं। वहीं राष्ट्रीय दल स्थानीय मुददों को राष्ट्रीय बनाकर माहौल अपने पक्ष में बनाने की कोशिश में लगे हैं।
वोटिंग पैटर्न महत्वपूर्ण: यहां वोटिंग प्रतिशत बढ़ना-घटना किसी पार्टी की जीत-हार तय नहीं करता है। वोटिंग पैटर्न से यह जरूर तय होता है। अनंतनाग सीट में तीन जिले पुलवामा, शोपियां और कुलगाम आते हैं। शोपियां पीडीपी के प्रभाव वाला इलाका है तो पुलवामा में एनसी का प्रभाव है। ऐसे में अगर शोपियां में वोटिंग कम होती है तो पीडीपी को नुकसान और पुलवामा में कम होती है तो एनसी को नुकसान।
पीडीपी के हाथ से श्रीनगर और बारामूला का गणित रेत की तरह फिसल रहा है। अनंतनाग सीट से उम्मीदें लगा सकती है। दक्षिण कश्मीर इस सीट से महबूबा सांसद थीं और इन दिनों आतंकियों के परिवारों को सहानुभूति की पूडिय़ां बांटते हुए सैन्य बलों पर इल्जाम लगा रही हैं। श्रीनगर सीट पहली बार पीडीपी ने जीती थी पर उपचुनाव में गंवा दी। अब इसके वापस आने के आसार नहीं हैं।
एनसी का हर जगह मजबूत दावा: गठबंधन हो या न हो एनसी फायदे में ही दिख रही है। घाटी में एनसी मजबूत नजर आ रही है। मात्र 36 वोट से भाजपा के खाते में जाने वाली लद्दाख सीट पर उनके पास गुलाम हसन खान के रूप में एक मजबूत उम्मीदवार है और वे यहां से दो बार जीत भी चुके हैं। एनसी का प्रभाव केवल कश्मीर में नहीं है बल्कि जम्मू में भी है। नेशनल कांफ्रेस ने सरकार गिरने को कश्मीरियों की अस्मिता से जोड़ दिया है। जिसका फायदा जम्मू में भले ही न मिले, लेकिन कश्मीर में साफ तौर पर मिलता दिखाई दे रहा है।
पीपुल्स कान्फ्रेंस- पीडीपी-एनसी के बीच उभरता दल: पीसी को घाटी में समर्थन मिल रहा है। इसका भी झुकाव भाजपा की तरफ बना हुआ है। घाटी में पीडीपी और एनसी के बीच यह पार्टी नया आकार ले रही है। पीडीपी का जहाज छोड़ रहे नेता अब इस जहाज पर भी सवारी कर रहे
हैं। बारामूला सीट पर इसका असर दिख सकता है। अनंतनाग और श्रीनगर में भी पार्टी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश में लगी है।
हुर्रियत की चालों का घाटी में इम्तिहान: अलगाववादियों की चुनावी चालों का इस बार नए सिरे से इम्तिहान होने जा रहा है। सैयद अली शाह गिलानी जहां लंबे समय से बीमार चल रहे हैं। वहीं मीरवाइज का दायरा बहुत सीमित हो गया है। यासीन मलिक का भी प्रभाव घटा है लेकिन इन सब बातों की बीच कश्मीरी सियासत में इन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। श्रीनगर के मसूद कहते हैं कि अब इन नेताओं में पहले वाली बात नहीं रही लेकिन इनका गठजोड़ क्षेत्रीय पार्टियों की गणित बदल देता है। ।
बसावट से कांड तक बनेंगे मुददे : चुनावी मुद्दों में जम्मू में जहां कठुआ कांड, आतंकवाद, सर्जिकल स्ट्राइक, बांग्लादेशी और रोहिंग्या बसावट का मुददा है। वहीं कश्मीर में पीडीपी-भाजपा गठबंधन, बुरहान एनकाउंटर, कश्मीरी अस्मिता, अनुच्छेद 35 ए आपरेशन ऑलआउट। बिजली और पानी पूरे प्रदेश में एक मांग है वहीं जम्मू के पर्यटन स्थलों के विकास का मुददा भी इस बार चुनाव में शामिल हो रहा है।

दलों का चुनावी गणित
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भाजपा: जीती सीटों पर भी स्थिति नाजुक
भाजपा जम्मू, उधमपुर और लद्दाख में जीती थी। लद्दाख सांसद थुप्स्तन के इस्तीफे से यह सीट टेढ़ी खीर बन गई है। उधमपुर में भी राह आसान नहीं नजर आ रही है। कठुआ भी इसी सीट में है। जम्मू में स्थिति बेहतर दिख रही है। यहां भाजपा का काडर में मजबूत हुआ है।

कांग्रेस: महागठबंधन से होगी राह आसान
कांग्रेस जम्मू-कश्मीर में साइलेंट किलर के रूप में कार्य कर रही है। जम्मू और उधमपुर में यह भाजपा को सीधी टक्कर देते नजर आ रही है। यदि गठबंधन होता है तो कांग्रेस की राह आसान हो जाएगी। दक्षिण और मध्य कश्मीर में भी कांग्रेस की अच्छी पैठ है।
पीडीपी: दिल्ली पर दोष मढ़ रहीं महबूबा
घाटी में एक बार फिर दिल्ली विरोधी छवि मजबूत करने के लिए महबूबा मुफ्ती मारे गए आतंकियों के परिवारों से मिल रही हैं। इस रणनीति से वे घाटी सियासी आधार को बचाना चाह रही हैं। हर दिन कोई न कोई पीडीपी छोड़ रहा है। अब तक छह विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं।

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