ये बात सही है कि महागठबंधन की बात सीएम नीतिश कुमार ने शुरू की थी। उस समय राहुल गांधी द्वारा तत्काल ध्यान न देने से उन्होंने एनडीए गठबंधन की ओर रुख कर लिया। लेकिन उनके इस आइडिया को राहुल गांधी ने पसंद किया। उसके बाद से लेकर कांग्रेस अध्यक्ष अब तक इस पर जोर दे रहे हैं। इसका सबसे पहले प्रयोग उन्होंने गुजरात विधानसभा चुनाव में किया। वहां पर उन्होंने कांग्रेस के साथ हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी व अन्यों को जोड़ा। इसका सीधा असर यह हुआ कि पीएम मोदी को अपने गृह प्रांत में ही जीत के लिए पसीने बहाने पड़े। ये बात अलग है कि कांग्रेस जीती हुई बाजी हार गई।
गुजरात में राहुल ने पहली बार सॉफ्ट हिंदुत्व के रूप में खुद को पेश किया जिसे देश के राजनीतिक क्षत्रपों ने पसंद भी किया। उसके बाद जब बारी कर्नाटक की आई तो उन्होंने भले ही जेडीएस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं किया लेकिन चुनाव बाद गठबंधन करने में उन्होंने भाजपा के चाणक्य अमित शाह को चकमा देने में कामयाब हुए। इतना ही नहीं उन्होंने कुमारस्वामी को सीएम बनाकर सभी राजनीतिक क्षत्रपों को यह संकेत दे दिया कि वो अगर महागठबंधन में शामिल होते हैं तो कांग्रेस उनके लिए किसी भी स्तर पर जाकर त्याग करने को तैयार है। साथ ही उन्होंने सीएम कुमारस्वामी के शपथगहण समारोह के अवसर पर विपक्षी एकता का महाकुंभ में तब्दील कर देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बशर्ते कि राजनीतिक महाकुंभ के उक्त मंच पर थर्ड फ्रंट की अगुवा ममता बनर्जी भी उनके साथ मौजूद थीं। इसके अलावा गांधी परिवार से उनका सीधा ताल्लुक होना भी उनके लिए एक मजबूत पक्ष है। इस बीच उन्होंने दलित और अल्पसंख्यक राजनीति को भी अपने पक्ष में हवा देने की कोशिश की है। इन सबके बावजूद उनके लिए महागठबंधन की अवधारणा को साकार रूप देना और उसका अगुवा बनना आसान नहीं है। क्योंकि इस दिशा में अभी कई कदम और आगे बढ़ाने होंगे।
महागठबंधन की राह में अड़चनें क्या हैं?
गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में राहुल का व्यक्तित्व प्रभावी तरीके से उभरकर आने के बाद से न केवल महागठबंधन को मोदी विरोधी सभी राजनीतिक दल तवज्जो दे रहे हैं, बल्कि राहुल गांधी का वजूद राजनीतिक क्षत्रपों की नजरों में बढ़ा है। लेकिन इस दिशा में अहम मुद्दा यह है कि महागठबंधन को लेकर अभी तक एजेंडा खुलकर सामने नहीं आ सका है। न ही एजेंडा को लेकर अभी तक चर्चा शुरू हुई है। दूसरी बात ये है कि विपक्षी एकता का एकमात्र ध्येय पीएम मोदी को लोकसभा चुनाव में रोकना है। इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन बिना वैचारिक आधार या न्यूनतम साझा कार्यक्रम के रोक पाना आसान नहीं है। ऐसा इसलिए कि इस तरह के गठबंधन को टूटने में समय नहीं लगता है। तीसरी बात ये है कि इस मुद्दे पर मोदी विरोधी दल हां में हां सुर तो मिला रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर अभी तक साफगोई के साथ कोई बात करने को तैयार नहीं है। साथ ही महागठबंधन में राजनीतिक दलों की भूमिका को लेकर भी अभी तक चर्चा नहीं हुई। इसलिए इस बात की संभावना है कि महागठबंधन की बात बनते-बनते कहीं बिगड़ न जाए।