पहली बार सबसे करीबी दोस्त राजेश खन्ना से चुनाव हार गए थे ‘शत्रु’
अटल और आडवाणी के चहेते थे शत्रुघ्न सिन्हा
क्या बन पाएंगे कांग्रेस का ‘विश्वनाथ’?
कभी हार कर भी BJP के हो गए थे ‘विश्ननाथ’, अब जीत पाएंगे या हो जाएंगे ‘खामोश’?
नई दिल्ली। पटना के कदमकुआं स्थित अपने घर से एक्टर बनने के लिए जब पहली बार शत्रुघ्न सिन्हा बाहर निकले थे, तब उन्होंने भी शायद नहीं सोचा होगा कि एक दिन लोगों के दिलों पर वह इस तरह राज करेंगे। उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि बड़ी-बड़ी हस्तियां, दिग्गज नेता और चर्चित पार्टियां तक उन्हें अपनी पलकों पर बिठा कर रखेंगी। 1969 में फ़िल्म ‘साजन’ से अपने करियर की शुरुआत करने वाले ‘शॉटगन’ के नाम से मशहूर हुए शत्रुघ्न सिन्हा शनिवार को कांग्रेस का ‘सरताज’ बन गए। लेकिन, इस ‘बिहारी बाबू’ का राजनीतिक सफर ऐसा है, जो शायद सबको नसीब न हो। जो हार कर भी ‘विश्वनाथ’ बनें और जीतकर भी ‘खामोश’ हुए।
करीबी दोस्त से हार, भाजपा के बने ‘सरताज’ कभी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की आन-बान और शान रहे शत्रुघ्न सिन्हा शनिवार को विधिवत रूप से कांग्रेस में शामिल हो गए। लेकिन, तीन दशकों (करीब तीस साल) तक भाजपा की आखों का तारा रहे शत्रुघ्न सिन्हा ने कभी सोचा नहीं होगा कि एक हार से वह पार्टी का ‘शौर्य’ बन जाएंगे। भाजपा में शामिल होने के बाद 1991 में शत्रुघ्न सिन्हा पहली बार नई दिल्ली लोकसभा सीट से उपचुनाव लड़े। इस चुनाव में दो बड़े फैक्टर थे, जिसके कारण सबकी निगाहें उनपर टिक गई। पहला कारण कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इस सीट से चुनाव जीते थे, लेकिन उन्होंने गांधीनगर सीट अपने पास रखी और इस सीट को खाली कर दिया। वहीं, दूसरा कारण जिसके खिलाफ शत्रुघ्न ने यह चुनाव लड़ा। सिन्हा ने जिसके खिलाफ चुनाव लड़ा वह कोई और नहीं बल्कि उनके सबसे अजीज मित्र राजेश खन्ना (कांग्रेस) थे। सिन्हा चुनाव भी हारे, दोस्ती भी खत्म हो गई, लेकिन भाजपा के वह ‘सितारे’ बन गए।
शत्रुघ्न सिन्हा चुनाव भले ही हार गए, देश और भाजपा में उनका ‘राज’ शुरू हो गया। शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा के स्टार प्रचारकों में शामिल हो गए। अटल बिहारी वाजयेपी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने शत्रुघ्न को खूब तवज्जो दी और इसका फायदा पार्टी को समय-समय पर मिलता रहा। 1996 में ‘बिहारी बाबू’ की बिहार में ऐसी एंट्री हुई, जिसका मोह अब तक उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। पहली बार सिन्हा को बिहार से राज्यसभा भेजा गया , कार्यकाल खत्म हुआ तो फिर से राज्यसभा भेजा गया। सिन्हा अटल-आडवाणी के इतने चहेते बन गए कि 2002 में जब भाजपा की सरकार आई तो उन्हें मंत्री तक बनाया गया। पहली बार सिन्हा को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री मिला। 2003 में उनका मंत्रालय बदलकर उन्हें जहाजरानी मंत्री बनाया गया।
जब भाजपा ने अपने ‘गढ़’ में उतारा सिन्हा को भाजपा में सिन्हा की पॉपुलैरिटी इस तरह बढ़ गई थी कि पार्टी को बिहार में वह सबसे बड़ा चेहरा नजर आने लगे। लिहाजा, आडवाणी ने बिहार के सारे दिग्गज नेताओं को साइडलाइन करते हुए VVIP सीट ‘पटना साहिब’ से ‘शॉटगन’ को 2009 में चुनाव लड़ाया। शत्रुघ्न ने राष्ट्रीय जनता दल के विजय कुमार को 1,66,700 वोटों के अंतर से करारी शिकस्त दी। इसके बाद 2014 में वह फिर इसी सीट से चुनाव लड़े और रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की। दरअसल, यह सीट हमेशा से भाजपा का गढ़ मानी जाती थी। साल 2008 में हुए परिसीमन से पहले पटना लोकसभा सीट पर भाजपा को पहली सफलता प्रो. शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव ने 1989 में दिलाई। साल 1998 और 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में इस सीट से डॉ सीपी ठाकुर लगातार दो बार विजयी रहे। लेकिन, शॉटगन के सामने पटना साहिब से सबकी सियासत पीछे छूट गई।
ये भी पढ़ें: शत्रुघ्न का बयान- मोदी अगर मुझे मंत्री पद दे देते तो कुछ हो जाता क्या?क्यों खास है पटना साहिब की सीट? बिहार की 40 संसदीय सीटों में से एक है पटना साहिब। 2008 तक पटना में एक ही संसदीय सीट हुआ करती थी, लेकिन उसी साल परिसीमन के बाद यहां दो सीटें बनाई गईं। इनमें एक है पटना साहिब और दूसरी ‘पाटलीपुत्र’। लिहाजा, शहरी इलाके में होने के कारण यह सीट बेहद ही खास है। बिहार के दिग्गज सभी नेताओं की नजर इसी सीट पर होती है। लिहाजा, दो बार इस सीट से जीत का स्वाद चखने वाले सिन्हा किसी भी हाल में इसे नहीं छोड़ना चाहते हैं।
क्या है इस सीट का जातीय समीकरण? पटना साहिब लोकसभा सीट पर जातीय समीकरण के आधार पर कायस्थों का दबदबा है। यहां कायस्थों के बाद यादव और राजपूत वोटरों का बोलबाला है। पटना साहिब लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में 1,641,976 वोटर हैं जिनमें 732,059 महिला और 909,917 पुरुष हैं। चर्चित चेहरा, एक्टर और कायस्थ होने की वजह से सिन्हा को बहुत फायदा मिला और दो बार उन्होंने जीत हासिल की। हालांकि, दूसरी पार्टी की भी कोशिश यही रहती है कि यहां से कायस्थ उम्मीदवार को ही मैदान में उतारा जाए।
ये भी पढ़ें: बिहारी बाबू ने थामा ‘हाथ’ का साथ, कांग्रेस में शामिल होते ही की यह गलतीबदलाव के साथ कम हुआ कद और हो गई विदाई… साल 2014 में नरेन्द्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने। लगातार पार्टी में सेवा करने के बाद सिन्हा के मन में मंत्रालाय की ख्वाहिश थी, लेकिन उन्हें साइडलाइन कर दिया गया। बेरुखी सिन्हा के चेहरे पर साफ दिखी और रास्ते जुदा होने लगे। पीएम मोदी और सिन्हा के बीच दूरियां बढ़ती गईं और हाथ से टिकट निकल गया। भाजपा ने इस बार केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद (कायस्थ) को पटना साहिब से टिकट दिया। चोट दिल पर लगी थी और जख्म शब्दों में दिख रहा था। घाव भरने के लिए दवा की जरूरत थी। कांग्रेस ने ‘पटना साहिब’का मरहम लगाया और शत्रु को अपना’धन’ समझते हुए बना दिया बिहार का ‘विश्वनाथ’। अब देखना यह है कि शॉटगन एक बार फिर पटना साहिब पर ‘राज’ करते हैं या फिर हो जाएंगे ‘खामोश’।