छह साल बाद राजनीति प्रणब के करीब आ ही गई, जानिए कैसे?
प्रणब मुखर्जी आज आरएसएस के कार्यक्रम में शाम को हिस्सा लेंगे पर उनके निर्णय को लेकर राजनीति एक पखवाड़े से जारी है।

नई दिल्ली। साल 2012 तक पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को पीएम पद के दावेदारों में गिना जाता था। उस दौर में अचानक उनका नाम राष्ट्रपति चुनाव के लिए आगे आया और जेडीयू और शिव सेना ने समर्थन कर दिया। इसके बाद मुखर्जी पीएम पद से आगे निकलते हुए राष्ट्रपति बन गए। संविधान की गरिमा उनके आगे आ गई और वो राजनीति से दूर हो गए। लेकिन ये सारी बातें अब पीछे छूट गई लगती है। राजनीति एक बार फिर प्रणब मुखर्जी के नजदीक आ गई है। ऐसा इसलिए कि वो आज शाम को आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के प्रशिक्षण वर्ग के समापन कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे और स्वयंसेवकों को संबोधित करेंगे। इससे पहले नागपुर में होने वाले इस कार्यक्रम के लिए प्रणब मुखर्जी को बुलाने की पहल आरएसएस की तरफ से हुई थी। उन्होंने आरएसएस के न्यौते को अपने स्वभाव के अनुकूल सहजता के साथ स्वीकार कर लिया। लेकिन उनके इस निर्णय ने कांग्रेस के नेताओं को असहज कर दिया है। असहज होने की वजह यह है कि जहां से प्रणब आते हैं और जहां जा रहे हैं वो नदी के दो किनारों की तरह हैं, जो कभी आपस में नहीं मिलते।
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देखो और इंतजार करो
उनके इस निर्णय के बाद से प्रणब को लेकर बहस जारी है। फिलहाल कांग्रेस और उसका नेतृत्व असमंजस में है। यही वजह है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस ने देखो और इंतजार करो की नीति पर अमल किया है। पार्टी हाईकमान को उनके स्पीच का इंतजार है। लेकिन कांग्रेस सहित विपक्ष के अन्य सभी नेताओं और राजनीति में रुचि रखने वालों की जिज्ञासा यह है कि प्रणब मुखर्जी नागपुर में क्या बोलेंगे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि आरएसएस और मुखर्जी के इस रणनीतिक-राजनयिक-राजनीतिक कदम के कई मायने निकलते हैं। फिलहाल सभी लोग इस बात को अपने तरीके से समझने की कोशिश कर रहे हैं।
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पीएम पद के लिए विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा
प्रणब मुखर्जी के इस फैसले को कई जानकार उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से जोड़कर देखते हैं। इस वर्ग का मानना है कि इस वक्त विपक्ष के पास कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं हैं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले में खड़ा हो सके और ऐसे में प्रणब मुखर्जी अपने लिए संभावनाएं बना रहे हैं। इस कयास के साथ एक उदाहरण यह भी दिया जा रहा है कि पिछले दिनों मुखर्जी ने बीजेडी (बीजू जनता दल) के प्रमुख नवीन पटनायक के घर हुए दोपहर भोज में भी हिस्सा लिया था। उसमें लालकृष्ण आडवाणी भी थे और माकपा के सीताराम येचुरी और जेडीएस (जनता दल-धर्मनिरपेक्ष) के एचडी देवेगौड़ा भी। यानी मुखर्जी लगातार राजनीतिक रूप से सक्रिय रहकर खुद को प्रासंगिक और चर्चा में बनाए हुए हैं। फिर संविधान में ऐसी कोई पाबंदी भी नहीं है कि कोई राजनेता राष्ट्रपति बनने के बाद प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। ये बात अलग है कि सेवानिवृत्त राष्ट्रपतियों के सार्वजनिक जीवन के नेपथ्य में चले जाने की अब तक सिर्फ परंपरा ही रही है। लेकिन प्रणब मुखर्जी परंपराओं में बंधे रहने वाले नेता नहीं हैं। इसकी मिसाल 1980 के दशक का एक वाक्या भी है। जब वे कुछ समय के लिए कांग्रेस से बाहर भी रह लिए थे।
राष्ट्रपति पद के लिए दूसरे कार्यकाल की अपेक्षा
एक सोच यह भी है कि प्रणब मुखर्जी शायद दूसरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति बनना चाहते हों। वह भी सर्वसम्मति से। पिछले ही साल उन्हें लगातार दूसरा कार्यकाल देने की जेडीयू, शिवसेना जैसे कुछ गैरकांग्रेसी दलों ने वकालत भी की थी। लेकिन भाजपा और आरएसएस में ही इसके लिए सहमति नहीं बन पाई। जानकारों के मुताबिक संभवत: यह वजह हो सकती है कि प्रणब मुखर्जी अब सीधे आरएसएस में अपने लिए समर्थन बढ़ाने की योजना पर काम कर रहे हों। हालांकि इसके लिए अभी चार साल से ज्यादा का वक्त है।
अपना कद और ऊंचा करने की ख्वाहिश
प्रणब मुखर्जी देश के बड़े राजनेताओं में से एक हैं। ऐसा भी हो सकता है कि आरएसएस का न्यौता स्वीकार करते वक्त उनके दिमाग में अपने कद को और बढ़ाने का विचार रहा हो। ऐसा करने वालों में पूर्व में सेवानिवृत्त वायुसेना प्रमुख एवाई टिपणिस क नाम सबसे आगे आता है। उन्हें भी संघ ने अपने ऐसे ही प्रशिक्षण वर्ग के समापन समारोह का मुख्य अतिथि बनाया था। वैचारिक तौर पर टिपणिस भी संघ से अलग विचार रखते थे। लेकिन उन्होंने कार्यक्रम में शिरकत की और देश की साझा संस्कृति और संविधान के धर्मनिरपेक्ष विचार का बीज संघ के स्वयंसेवकों के बीच रोपकर चले आए। वो भी किसी को निशाना बनाए बगैर। संभव है प्रणब मुखर्जी ऐसा ही कुछ करना चाहते हों। अगर उन्होंने ऐसा किया तो उनका कद वर्तमान राजनीति में और ऊंचा हो जाएगा।
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