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Exclusive : ये सियासत है, यहां रास्तों के साथ मंजिलें भी बदल जाती हैं!

locationनई दिल्लीPublished: Jun 11, 2020 07:27:49 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

आखिर क्यों दिग्विजय सिंह, अजय सिंह और गोविंद सिंह पर भड़क रहे हैं राकेश सिंह
 

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नई दिल्ली.
मध्यप्रदेश इन दिनों सियासत के चरम पर है। आखिर हो भी क्यों न, वहां पर 24 विधानसभाओं में उपचुनाव की तैयारी है और दोनों ही पार्टियां अपने भीतर अंदरूनी कलह से जूझ रही हैं। भाजपा में जहां मुकाबले के लिए शिवराज सिंह चौहान आगे निकलकर खेल रहे हैं तो कांग्रेस की ओर से जिम्मेदारी कमलनाथ के बुजुर्ग कंधों पर है। लेकिन सियासत का खेल यही है कि दोनों ओर से शह और मात का खेल अभी से शुरू हो गया है। लेकिन इन सबके बीच में अगर कोई चर्चाओं में है तो सिर्फ राकेश सिंह। फिलहाल इनके निशाने पर कांग्रेस का ठाकुर कुनबा है, जिसकी कमान वही दिग्विजय सिंह संभालते हैं, जिनकी सरकार में राकेश मंत्री रहे हैं।
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राकेश सिंह के नाम से जरा परेशान मत होइए…ये भाजपा वाले सांसद राकेश सिंह नहीं हैं, बल्कि कांग्रेस के चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी हैं। ये दिग्विजय सिंह और पूरी ठाकुर टीम पर क्यों भड़के हैं, इसको जानने से पहले जरा थोड़ा पीछे मुड़कर देख लेते हैं। 2013 में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोरों पर थीं। कांग्रेस ने सरकार पर हमला बोलने के लिए सदन के आखिरी सत्र में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। सरकार ने भी चर्चा मंजूर कर ली। प्रस्ताव रखने का जिम्मा कांग्रेस की ओर से सदन में कांग्रेस के उप नेता चौधरी राकेश सिंह को दी गई।
धीर—गंभीर चेहरे वाले राकेश सिंह को बोलने में माहिर माना जाता है। हर कोई उम्मीद कर रहा था कि जब वह बोलेंगे तो सरकार के लिए सवालों की झड़ी लगा देंगे। पूरा सदन खामोश था, लेकिन सदन के संसदीय कार्यमंत्री के चेहरे पर बड़े ही निश्चिंतता के भाव थे, इनके नाम का जिक्र भी आगे कर देंगे। खैर, राकेश सिंह बोलने के लिए खड़े होते हैं और अपनी ही पार्टी के खिलाफ बोलना शुरू हो जाते हैं। जिसे सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करना था, वह कांग्रेस छोड़ने का ऐलान सदन के भीतर कर देता है। पूरी कांग्रेस सन्न रह जाती है और पूरा सदन अवाक। अचानक से हंगामा होता है और सदन को खत्म कर दिया जाता है। कांग्रेस कुछ सोच पाती इससे पहले ही नरोत्तम मिश्रा उनके करीब पहुंच जाते हैं।
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नरोत्तम मिश्रा ही वही शख्स हैं, जो सदन के भीतर बड़े ही निश्चिंतता के भाव से बैठे थे, उन्हें मालूम था कि अगले पल क्या होने वाला है। दरअसल, इस पूरे खेल के पीछे पटकथा वही लिख रहे थे। राकेश सिंह भाजपा में जा चुके थे और कांग्रेस के पास आखिरी मौके पर कुछ भी बचाने को शेष नहीं बचा था। बिकने और खरीदने के आरोप लगे, लेकिन उन्होंने मजबूती दिखाई और विधानसभा चुनावों में भाजपा की ओर से उम्मीदवारी नहीं की। बल्कि अपने भाई मुकेश चौधरी को मेहगांव सीट से भाजपा का उम्मीदवार बनवा दिया। कहा जाता है कि यह उनकी भाजपा के साथ डील का हिस्सा था कि उनके भाई को विधानसभा का टिकट मिलेगा और भाजपा उन्हें राज्यसभा भेजेगी। राज्यसभा तो राकेश सिंह नहीं जा पाए, लेकिन कहते हैं कि राकेश सिंह ने अपने अटके हुए कई काम भाजपा की सरकार में करा लिए और चुपचाप भिंड में ही अपना डेरा बना लिया। कभी भोपाल में आकर सियासत करने की कोशिश नहीं की और न ही भाजपा के भीतर नेता बनने का प्रयास किया।
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2018 का विधानसभा चुनाव आते—आते कहानी बहुत कुछ बदल चुकी थी। राकेश सिंह ने इस पर पैंतरा बदला और भिंड से खुद के लिए टिकट मांग लिया। भाजपा ने भी शर्त रख दी कि एक घर में एक टिकट। ऐसे में राकेश ने अपने विधायक भाई मुकेश की मेहगांव से दावेदारी खत्म कर भिंड से टिकट हासिल कर लिया। भाजपा के नेता यहीं पर चोट कर गए। भाजपा नेता नरेंद्र सिंह एक बड़े नेता की शह पर निर्दलीय मैदान में आ गए और राकेश सिंह चुनाव हार गए। यहीं से वापस हृदय परिवर्तन हुआ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के कहने पर कांग्रेस के भीतर लौट आए। वैसे इन्हें सिंधिया खेमे का ही नेता माना जाता था। सिंधिया खेमे में विधानसभा के भीतर महेंद्र सिंह कालूखेड़ा के बाद अगर किसी का नाम आता था तो वह राकेश सिंह ही थे।
खैर, अब वापस लौटकर आते हैं…असल कहानी पर। कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया के दांव में चित हो गई। सरकार चली गई है और अब उसे 24 सीटों पर उपचुनाव लड़ना है। उसके पास उम्मीदवारों का भी अभाव है। जबकि वह मानकर चल रही है कि अगर सही रणनीति और सही चेहरे के साथ मैदान में उतरी तो वह अपनी खोई हुई सरकार वापस पाने में कामयाब रहेगी। इसीलिए गणित उसी हिसाब से बिठाने की कोशिश हो रही है। भाजपा के पास बदलने के लिए चेहरे नहीं हैं। उसे उन्हीं घोड़ों पर दांव लगाना है, जो उसने सरकार के गिराने के लिए इस्तेमाल किए थे। ऐसे में मेहगांव सीट से भाजपा की ओर से वही ओपीएस भदौरिया दावेदार हैं जो कांग्रेस की विधायकी छोड़कर भाजपा में गए हैं। ऐसे में इस सीट के ब्राह्मण और ठाकुर के फार्मूले को बनाने के लिए कमलनाथ ने राकेश सिंह पर हाथ धरना शुरू कर दिया। ग्वालियर—चंबल इलाके में सिंधिया के तिलिस्म को तोड़ने के लिए कमलनाथ को पुराने सिंधिया के लोग ही चाहिए और यह राकेश सिंह कर सकते हैं। बस यहीं से खेल शुरू हो गया।
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राकेश सिंह भी मेहगांव से दावेदारी कर रहे हैं। उन्हें भरोसा है कि कांग्रेस उन्हें प्रत्याशी बना देगी। लेकिन जैसे ही यह खबर कांग्रेस के भीतर फैली तो विरोध की आवाज पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खेमे से आई। सबसे पहले विरोध उन्होंने ही किया और कहा कि जो पार्टी से बाहर गया, उसे उम्मीदवार बनाने की जरूरत नहीं है। बात यहीं रुक जाती तो शायद कांग्रेस के लिए बेहतर होता, लेकिन दिग्विजय सिंह के खेमे से अजय सिंह और गोविंद सिंह ने भी राकेश सिंह पर हमला बोल दिया। दरअसल, राकेश सिंह इसी तिकड़ी से परेशान होकर कांग्रेस छोड़कर भाजपा में गए थे। अब जब वापस कांग्रेस में संभावनाएं बना रहे हैं तो इन तीनों चेहरों को अपने राजनीतिक खेल के बिखर जाने का डर है।
दरअसल, आज अगर राकेश सिंह कांग्रेस के भीतर वापसी करते हैं और विधायक बनकर आ जाते हैं तो वह ग्वालियर—चंबल अंचल में कांग्रेस का नया चेहरा बनकर खड़े हो सकते हैं। ऐसे में दिग्विजय सिंह के लिए मुश्किल हो सकती है। क्योंकि वह इस इलाके में अपने चेहरों को खड़ा करने के प्रयास में हैं…या यूं कहें कि वह खुद ग्वालियर—चंबल के इलाके में अपना प्रभुत्व बनाना चाहते हैं, जो वह सिंधिया परिवार के कारण कभी नहीं बना सके। खैर, अब राजनीति के खेल में क्या होगा यह तो कमलनाथ के फैसले पर निर्भर है। लेकिन इतना साफ है कि बड़ी लड़ाई के लिए मैदान में आ रही कांग्रेस को अभी अपने अंदर की लड़ाई से ही बाहर आना होगा।

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