सरकार जिस दिन बनी थी, उसी दिन से कमलनाथ सरकार का ओवरकॉन्फिडेंस दिखाई देेने लगा था। दस दिन में किसानों की कर्जमाफी और युवाओं को चार हजार रुपए देने की घोषणा भी भारी पड़ गई। उसके बाद सरकार की कमियों पर फीडबैक आना शुरू हुआ तो उसे मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर कोई सुनने को तैयार नहीं था। मुख्यमंत्री के करीब रहने वाले अफसरों ने जमीनी विरोध का अहसास कभी मुख्यमंत्री को होने भी नहीं दिया। अगर यह कहें कि मुख्यमंत्री ने भी खुद कभी इस पर गंभीरता नहीं दिखाई कि आखिर सरकार के कामकाज को पब्लिक में किस तरह से देखा जा रहा है। उनके विधायकों और मंत्रियों के काम को कैसे देखा जा रहा है। फीडबैक सिस्टम पूरी तरह से फेल साबित रहा। मुख्यमंत्री के करीबी अफसरों से लेकर नेताओं ने सच बोलने से परहेज किया और उसका नुकसान सरकार को उठाना पड़ा।
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनावों के समय ज्योतिरादित्य सिंधिया को पोस्टर बॉय के तौर पर लांच किया गया था। मानकर चला जा रहा था कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो सिंधिया मुख्यमंत्री हो सकते हैं। हालांकि मुकाबले में कमलनाथ भी शीर्ष पर ही थे। जब मुख्यमंत्री चुनने का नंबर आया तो कमलनाथ ने सिंधिया को राजनीतिक रूप से नेपथ्य में धकेल दिया। उसके बाद लगातार सिंधिया को पीछे धकेलने का प्रयास किया गया। मुख्यमंत्री नहीं बन पाने के बाद सिंधिया ने प्रदेश अध्यक्ष के लिए दावेदारी की तो कमलनाथ और उनके समर्थकों ने वहां पर भी विरोध किया।
चुनाव हारने के बाद भाजपा अचानक से गुटों में बंट गई थी। सरकार को अस्थिर करने की तो दूर की बात सरकार के खिलाफ हमलावर भी नहीं हो रही थी। ऐसे में सरकार आराम से चल रही थी, लेकिन अचानक कमलनाथ ने सलाहकारों के कहने पर पूरे प्रदेश में भाजपा नेताओं पर निशाना कसना शुरू कर दिया।
कमलनाथ ने मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के बाद अपने पास कोई भरोसेमंद नेता नहीं रखा। कमलनाथ के पास टीम छिंदवाड़ा तो थी, लेकिन उनके पास भरोसेमंद मददगार नेताओं की टीम खड़ी नहीं हो पाई। अनुभव रखने वाले विधायकों को मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया और इसमें नए युवा विधायकों को कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। पहली बार मंत्री बनने वाले कई नेता सीधे कैबिनेट मंत्री बने, ऐसे में उन्हें अनुभवहीनता का सामना करना पड़ा और आधी से ज्यादा कैबिनेट आम आदमी के संपर्क से बाहर हो गई।