लकड़ी के अभाव में छोड़ा पुश्तैनी धंधा
प्रतापगढ़Published: Oct 15, 2021 07:23:57 am
प्रतापगढ़कांठल की प्रसिद्ध थेवा कला के साथ ही वर्षों से ख्यात रही काष्ठकला अब विलुप्ति के कगार पर है। तकनीकी युग में अब इसके कद्रदान भी नहीं बचे हैं। इसके साथ ही इसमें काम आने वाली खिरनी के पेड़ भी काफी कम रह गए है। इससे गत एक दशक में ही काष्ठकला के कारीगर भी अब इक्का-दुक्का ही रह गए है। ऐसे में जो कारीगर बचे है, वे भी खिरनी की जगह निलगिरी(यूकेलिप्टिस) की लकड़ी काम में ले रहे हैं। जिससे अस्तित्व खोती जा रही काष्ठकला को जीवित रखने का एक प्रयास है।
लकड़ी के अभाव में छोड़ा पुश्तैनी धंधा
विलुप्त होती कांठल की काष्ठ कला
-जीवित रखने के लिए यूकेलिप्टिस की लकड़ी का किया जाने लगा उपयोग
-=जंगल में खत्म हो रही खिरनी के पेड़
-प्रतापगढ़ में बचे में इक्का-दुक्का कारीगर
प्रतापगढ़
कांठल की प्रसिद्ध थेवा कला के साथ ही वर्षों से ख्यात रही काष्ठकला अब विलुप्ति के कगार पर है। तकनीकी युग में अब इसके कद्रदान भी नहीं बचे हैं। इसके साथ ही इसमें काम आने वाली खिरनी के पेड़ भी काफी कम रह गए है। इससे गत एक दशक में ही काष्ठकला के कारीगर भी अब इक्का-दुक्का ही रह गए है। ऐसे में जो कारीगर बचे है, वे भी खिरनी की जगह निलगिरी(यूकेलिप्टिस) की लकड़ी काम में ले रहे हैं। जिससे अस्तित्व खोती जा रही काष्ठकला को जीवित रखने का एक प्रयास है। रियासत काल से चली आ रही और आजादी के चार दशक तक जंगल में लकड़ी की सुगमता के चलते ये व्यवसाय काफी फुला-फला। पिछले एक दशक से लकडिय़ों की कमी और तकनीकी युग के हावी होने के बाद ये कला गर्त में जाने लगी है। इससे जुड़े कारीगर अब भी इक्का-दुक्का ही रह गए हैं।
पचास से तीन
यहां शहर में दो दशक पहले तक इस कला से जुड़े करीब पचास करीगर थे। जो अब मात्र तीन ही रह गए हैं। इन कारीगरों की क्षेत्र में एक विशेष पहचान भी थी। लकड़ी नहीं मिलने सेे काम भी कम हो गया। इससे कई करीगर तो यहां से पलायन कर गए, जबकि कई कारीगरों ने अन्य व्यवसाय को पकड़ लिया। जिसके फलस्वरूप अब गिनती के तीन कारीगर ही इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। काष्ठकला से जुड़े परिवारों के युवा वर्ग तो अब इस व्यवसाय से दूर हो गए हैं।
इन वस्तुओं का होता है निर्माण
कांठल में बने काष्ठ की वस्तुओं की दूर-दूर तक मांग रहती थी। इसमें खिलौने, बेलन-चकले, मूसल, डांडिया, वॉल लेम्प, चकरी, ऐश-ट्रे, गिलास, कृषि औजारों के हत्थे, पलंग, सौफे आदि के पाये और हत्थे बनाए जाते हैं। वैसे अब फर्निचर के पाये और डिजाइन के लिए गिल्लियां अधिक बनाई जाती है। कल्याण कुमावत ने बताया कि अब नई पीढ़ी तो इस कला को सीख ही नहीं रही है।
कांठल की चौपड़ मारवाड़ तक
काष्ठकला से जुड़ेे कारीगर ईश्वर खैराती ने बताया कि यहां बनने वाले चौपड़ तो मारवाड़ तक जाते थे। कुमावत का कहना है कि यहां से चौपड़ बनाकर वे उदयपुर भेजते हैं। उदयपुर से बीकानेर, जोधपुर, बाड़मेर, जैसलमेर आदि तक जाते हैं। इन स्थानों पर कांठल के चौपड़ की विशेष मांग रहती है।
खिरनी के पेड़ कम, निलगिरी से आसरा
– जंगल में पेड़ों की अवैध कटाई होने से कई किस्मों के पेड़ भी कम होते जा रहे है। ऐेसे में खिरनी के पेड़ भी कम हो गए है। जिससे काष्ठकला में काम कम होता जा रहा है। इसकी जबह अब निलगरी के पेड़ की लकडिय़ों का काम होने लगा है। यह लकड़ी भी खिरनी की लकड़ी जैसी ही आकर्षक और मुलायम होती है।