यह है तकनीक : इसमें भ्रूण को इन्क्यूबेटर में रखते हैं। यहां से तस्वीर लेकर विशेषज्ञ भ्रूण की ग्रोथ का अध्ययन कर एक निश्चित समय अंतराल पर कोशिकाओं में होने वाले विघटन का विश्लेषण करते हैं। भ्रूण का समय पर विभाजन, सामान्य मानते हैं। इससे सफल इम्प्लांट की संभावना बढ़ती है। तकनीक के जरिए तीन सही दिखने वाले भ्रूणों के बेहतर विकास के आधार पर उन्हें चुनकर यूट्रस में इम्प्लांट करते हैं।
ऐसे पूरी होती प्रक्रिया : पहले पांच दिन भ्रूण को टाइम लैप्स इमेजिंग के साथ लगे इन्क्यूबेटर में विकसित करते हैं। सिस्टम से भ्रूण के विकास की विभिन्न स्टेज की पांच हजार तस्वीरें लेकर उनका विश्लेषण व विशेषज्ञों के साथ चर्चा कर बिना चीरफाड़ के भ्रूण को चुनकर आगे की प्रक्रिया शुरू करते हैं।
कौनसा भ्रूण बेहतर : जो तस्वीरें ली जाती है, उनका गहनता से अध्ययन कर पता लगाते हैं कि किस भ्रूण में असामान्य संख्या में क्रोमोसोम्स होने की सबसे कम या सर्वाधिक आशंका है। एक स्वस्थ मानव भ्रूण में क्रोमोसोम्स के 23 जोड़े होने चाहिए। इस संख्या में किसी भी तरह का बदलाव होने पर इम्प्लांट के विफल होने की आशंका बढती है। क्योंकि यह तकनीक असामान्य क्रोमोसोम्स का जोखिम देखते हुए भ्रूण की स्क्रीनिंग की सुविधा देती है, ऐसे में खतरों को कम कर सकते हैं। भ्रूण में असामान्य संख्या में क्रोमोसोम्स होना आईवीएफ चक्र के विफल होने का बड़ा कारण है। इससे या तो गर्भ में इम्प्लांट करने में असफलता होती है या बाद की स्टेज में गर्भपात हो सकता है या बच्चा डाउन सिंड्रोम या अन्य आनुवांशिक समस्याओं के साथ पैदा हो सकता है।
– डॉ. तरुणा झाम्बा, गाइनेकोलॉजिस्ट, उदयपुर