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चुनाव और आंदोलन

locationरायपुरPublished: Jun 28, 2018 06:54:11 pm

Submitted by:

Gulal Verma

चुनाव का समय करीब आता है और आंदोलन ज्यादा होने लगते हैं।

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चुनाव और आंदोलन

चुनाव करीब आता है तो सरकार लोकलुभावन का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती। लोगों को साधने का कोई मौका नहीं खोती। सवाल चुनाव में वोट का है। पर यहां सरकार ही चतुर नहीं है, बल्कि हर कोई चतुर हो गया है। तभी तो चुनाव का समय करीब आता है और आंदोलन ज्यादा होने लगते हैं। पुरानी मांगों का पिटारा खुल जाता है। आंदोलन करने वाले भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। वे यह मानते हैं कि चुनाव का समय आ रहा है, इसलिए सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है। सरकार उनकी मांगों को अनसुनी नहीं कर सकती।
इस माह खूब आंदोलन हुए। अलग-अलग कर्मचारी संगठनों समेत कई अन्य संगठनों ने अपनी ताकत दिखाते हुए परोक्ष तौर पर सरकार को चेताया कि उनकी अनदेखी उनको भारी पड़ जाएगी। अगली बार सरकार बनाना है तो उनकी मांगों पर ध्यान देना होगा। विपक्ष के नेता भी बहती गंगा में हाथ धोने के मौका नहीं छोड़ते। झट आंदोलन को समर्थन देने पहुंच जाते हैं। यह घोषणा भी कर देते हैं कि उनकी सरकार बनी तो उनकी मांगें पूरी कर दी जाएगी। अब दो ऐसे आंदोलन के बारे में जिक्र करना लाजिमी होगा जिस पर सरकार व विपक्ष दोनों की नजरें इनायत नहीं हुई। पहला किसानों का आंदोलन। सत्ताधारी हो या विपक्ष कोई भी किसानों को खुश नहीं कर सका है। दूसरा है निजी स्कूलों में शुल्क की मनमानी बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलन का।
हर साल की भांति इस वर्ष भी स्कूल खुलने पर शुल्क वृद्धि का विरोध करने वाले संगठन सक्रिय हो गए हैं। इसमें अहम बात यह है कि हर साल आंदोलन भी चलता है और शुल्क भी बढ़ता है। न सरकार सुनती है न विपक्ष के नेता कोई तवज्जो देते हैं। सच्चाई यह भी है कि कुछ लोग इस आंदोलन की आड़ में अपनी दुकानदारी भी चलाते हैं। अपनी रोटी सेंकना उनका मकसद होता है। इसके लिए पालकों को सिर्फ इस्तेमाल करते हैं। ये भी एक बड़ी वजह है कि निजी स्कूल संचालकों पर आंदोलन का कोई असर होता दिखाई नहीं पड़ता। बहरहाल, सरकार को मनमानी व मनमर्जी करने वाले निजी स्कूल संचालकों के खिलाफ सख्ती बरतनी चाहिए।

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