छत्तीसगढ़ में खुदाई में मिली एेतिहासिक लोरिक-चंदा की अमरप्रेम कहानी की 40 निशानियां
नेशनल हाइवे (national highway) के किनारे स्थित लोरिक चंदा टीले से खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को एक मुहर मिला है। इसे आसपास के ग्रामीण ऐतिहासिक लोरिक-चंदा टीला मानते हैं। माना जाता है कि इस टीले के पास ही लोरिक चंदा मिलते थे।

रायपुर. राजा महर की बेटी ये ओ, लोरिक गावत हवव चंदा..., ये चंदा हे तोर...,। छत्तीसगढ़ी लोक कथा (Chhattisgarhi folk tales) की ये पंक्तियां जो भी सुनता है वह लोरिक-चंदा (Lorik Chanda) की प्रेम गाथा (Love story) में डूब जाता है। प्रेम, त्याग और संघर्ष की ये कहानी फिर से चर्चा में हैं। दरअसल, आरंग के पास रीवा गांव के लोरिकगढ़ में पुरातत्व विभाग (Archaeological department) उत्खनन करवा रहा है।
गांव वालों का मानना है कि लोरिक लोरिकगढ़ का ही रहने वाला था। वह इस गांव के आसपास मवेशी चराता था। इस दौरान वह बांसूरी बजाता था और इससे मोहित होकर आरंग की चंदा उससे मिलने आती थी। दोनों की प्रेम लीला लोरिकगढ़ का हिस्सा रहा।
ग्रामीण दावा करते हैं कि लोरिक की वजह से ही रींवा के इस हिस्से को लोरिकगढ़ कहा जाता है। फिलहाल पुरातत्व विभाग के अधिकरियों ने लोरिकगढ़ को लोरिक-चंदा से नहीं जोड़ा है, लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि जो प्रेमगाथा सदियों से चली आ रही है और जिसमें आरंग व रींवा का उल्लेख होता है। इसमें कुछ तो सच्चाई है। इसका अन्वेन्षण होना चाहिए।
लोरिकगढ़ में 40 टीले
पुरातत्वविदों को लोरिकगढ़ में 40 टीले मिलें हैं, जिसे प्राचीन नगर का अवशेष बताया जा रहा है। इसी इलाके को लोरिकगढ़ कहा जाता है। रींवा के मंदिरों में लोरिकगढ़ ही लिखा जाता है। गांव वालों का मानना है कि लोरिकगढ़ में लोरिक रहता था। इसी कारण उसका नाम लोरिकगढ़ पड़ा।
ऐतिहासिक लोरिक-चंदा टीले में स्तूप
रायपुर-महासमुंद टीले के किनारे एक टीला है। इसे आसपास के ग्रामीण ऐतिहासिक लोरिक-चंदा टीला मानते हैं। माना जाता है कि इस टीले के पास ही लोरिक चंदा मिलते थे। पुरातत्व विभाग ने इस टीले की खुदाई शुरू कर दी है। टीले के नीचे मिट्टी के स्तूप मिले हैं। इसे 9 स्तर की मिट्टी से बनाया पहला स्तूप माना जा रहा है। ग्राम रींवा के अशोक धीवर ने बताया कि इस स्थान पर लोरिक-चंदा मिलते थे।

रायपुर के आर्कियोलॉजिस्ट अरूण कुमार शर्मा ने बताया कि लोरिक-चंदा टीला और लोरिकगढ़ के टीलों में खुदाई की जा रही है। कई ऐतिहासिक चीजें मिली है। साक्ष्य चौथी-पांचवी सदी ईसा पूर्व के हैं। फिलहाल यहां लोरिक-चंदा से जुड़ा प्रमाण नहीं मिला है। जब तक कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है, तब तक लोरिक-चंदा से जुड़ाव साबित करना मुश्किल है। लोकगाथा में इन स्थानों का उल्लेख मिलता है, लेकिन कोई भी सीधा प्रमाण नहीं है।
रायपुर के इतिहासकार आचार्य रमेन्द्रनाथ मिश्रा ने बताया कि लोकधारणा के आधार पर लोरिक-चंदा से जुड़े स्थानों का अन्वेन्षण होना चाहिए। आरंग और उसके आसपास का इलाका ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है। लोरिक चंदा का भी इन्ही स्थानों से जुड़ाव माना जाता है। उसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन लोकधारणा और जनश्रुति के आधार पर इन तथ्यों का अन्वेन्षण होना चाहिए। इससे लोरिक चंदा की कहानी के बारे में जरूर पता चलेगा।
मुहर की लिपि
नेशनल हाइवे (national highway) के किनारे स्थित लोरिक चंदा टीले से खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को एक मुहर मिला है। उसकी लिपि की जांच की जा रही है लिपि ब्रम्ही में हैं। इससे तत्कालीन राजवंश के बारे में पता चलेगा।
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