गांव वालों का मानना है कि लोरिक लोरिकगढ़ का ही रहने वाला था। वह इस गांव के आसपास मवेशी चराता था। इस दौरान वह बांसूरी बजाता था और इससे मोहित होकर आरंग की चंदा उससे मिलने आती थी। दोनों की प्रेम लीला लोरिकगढ़ का हिस्सा रहा।
ग्रामीण दावा करते हैं कि लोरिक की वजह से ही रींवा के इस हिस्से को लोरिकगढ़ कहा जाता है। फिलहाल पुरातत्व विभाग के अधिकरियों ने लोरिकगढ़ को लोरिक-चंदा से नहीं जोड़ा है, लेकिन इतिहासकार मानते हैं कि जो प्रेमगाथा सदियों से चली आ रही है और जिसमें आरंग व रींवा का उल्लेख होता है। इसमें कुछ तो सच्चाई है। इसका अन्वेन्षण होना चाहिए।
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