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आगी बरसत हे अकास ले, पानी सूखावत हे भुइंया के!

locationरायपुरPublished: May 28, 2019 04:57:50 pm

Submitted by:

Gulal Verma

का-कहिबे…

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आगी बरसत हे अकास ले, पानी सूखावत हे भुइंया के!

आ ज बहुचेत गरमी हे। वइसे काली घलो कम नइ रहिस हे। फेर, आज थोरकिन जादा हे। अखबार म समाचार पढ़ेंव के देसभर म रिकार्ड तोड़ गरमी परत हे। नदिया-नरवा, तरिया-कुआं अंटा गे हे। एक-एक बूंद पानी पर लड़ई-झगरा होवत हे। त अपन गांव के नानपन के संगवारी ल वोकर राजी-खुसी पूछे अउ गांव के हाल-चाल जाने बर फोन करेंव, का हाल हे, संगी! कइसे बीतत हावय। फेर, फोन करई ह मोला भारी परगे। मोर पूछते, गुस्सागे वोहा, बीतत तो तोर होही, इहां तो बीतावत नइ बीतत हे।
गरमी तो रइपुर म घलो परत हे। कईठन पारा-मोहल्ला, कालोनी म पानी नइये। लोगनमन रतजगा करत हें। पारा ह जेठ के महीना म नइ चघही त का कुंवार म चघही, ठठ्ठा करेंव मेहा।
वोहा चिढ़हत बोलिस, सिरीमान! एक तो लू के चलई, बोरिंग के सूखई, तरिया-कुआं के अंटई अउ दूसर बिजली के गुल होवई। बिजली ह ‘हरहा गरवाÓ कस जब मन होथे आथे अउ जब मन होथे चल देथे। तेहां तो परदेस के राजधानी म रहिथस। उहां सउहें सरकार बइठे हे। मंतरी-साहेब जम्मो हे। तुमन ल का तकलीफ, तेकरे सेती ठठ्ठा करत हस जी, संगवारी! काहत फोन ल रख दीस।
गरमी के अलगेच रोआब अउ रुतबा होथे। फेर चाहे वो मउसम के होवय या फेर पइसा अउ कुरसी के। दिमाग के गरमी वाले से कहुं पाला परगे त संबंध ह राख होय के डर बने रहिथे। गरमी म आमा घलो होथे। फेर, महंगई के गरमी अतेक के आम मनखे आमा नइ बिसाय सकय।
वइसे गरमी बाढ़े ले ‘पानी बेच के पइसा कमइयाÓ लोगनमन के निकल परे हे। गरमी बाढ़े ले भरस्ट नेता, अधिकारी, मुनाफाखोर बेपारीमन के कमई घलो बाढ़ गे हे। बिपक्छी दल के नेतामन के नेतागिरी घलो चमकत हे। सरकार ल कोसे अउ जनता के हितवा बने के वोमन ल अब्बड़ मउका मिलत हे। जेती देखबे वोती लोगनमन पानी-पानी कहिके चिल्लावत हें। जनम के परोसीमन एक बाल्टी पानी बर दुस्मन बरोबर लड़ई-झगरा, गारी-गुप्तार, मारा-पीटी होवत हें।
ए बछर गरमी जादा बाढ़ गे हे। बाढ़े बर चाही! बाढ़ही तभे तो मनखेमन चेतहीं! वइसे, हर बछर थोर-थोर करके गरमी बाढ़त जावत हे। हमन तरिया, कुआं ल पाटन हंन। बरसात के पानी ल सकेल के नइ रखत हंन। सबो डहर डामर, सीमेंट-गिट्टी के जंगल उगावत हंन। परयावरन ल बिगाड़त हंन। परदूसन फइलावत हंन। रूख-राई ल काटत हंन। जंगल लगाय के ककरो जांगर नइ चलत हे, फेर वोला जड़ ले काटत जावत हंन। जंगल नइ रइही त गरमी तो बाढ़बेच करही!
वइसे गरमी म हर बछर कतको चिरई-चिरगुन, माल-मत्तामन पियास म मर जथें। मनखेमन मतलाहा पानी ल पीके बीमार पर जथें। हरियर रुख-राई सूखा जथें। बिजली ह घलो अब्बड़ पदोथे। लोगनमन दिनभर उमस म अउ रातभर भूसड़ी के चबई म हलाकान रहिथें।
जब लोगनमन बाढ़त गरमी ल देख के घलो परदूसन फइलावत हें, रूख-राई ल काटत हें, पेड़-पउधा नइ लगावत हें, पानी के बरबादी नइ रोकत हें, सरकार ह करोड़ों रुपिया खरचा करके जनता ल गरमी ले बचाय के बने बेवस्था नइ कर पावत हे। कोनो ह अपन जवाबदारी ल ईमानदारी से नइ निभावत हें, त अउ का-कहिबे।
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