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जिनगी के इही हावय सच, जादा गम अउ खुसी कम

locationरायपुरPublished: Sep 11, 2019 05:51:52 pm

Submitted by:

Gulal Verma

का-कहिबे…

जिनगी के इही हावय सच, जादा गम अउ खुसी कम

जिनगी के इही हावय सच, जादा गम अउ खुसी कम

चार झन संगवारी संघरिन तहां ले जमानाभर के गोठ-बात सुरू हो जथे। जुन्ना समे के सुरता करे लगथें। एकझन संगवारी कहिस – तेहा नानपन म अब्बड़ डरपोकना रहेस। गुरुजी ल देख के तोर सिट्टी-पिट्टी गुल हो जाय।
संगी! गौतम बुद्ध ल जब गियान मिलिस त वोहा कहे रिहिस – दुनिया म दुख हे अउ वोकर कारन घलो हे। वइसने किसम ले डर हे त वोकर कारन घलो हे। अब समझ म अइस डर ह तो बड़े-बड़े ल बियाकुल कर देथे। जइसे नेता ल चुनई हारे के डर रहिथे। साहेबमन ल कमई वाले जगा ले बदली होय के डर रहिथे। पढ़इया लइकामन ल परीक्छा म फेल होय के डर रहिथे। गोलमाल करइयामन ल सीबीआई के डर रहिथे। किसान ल फसल खराब होय के डर रहिथे। अइसने सबो मनखे ल कुछु न कुछु जिनिस के डर रहिथे। तभे तो वेद व्यास ह गीता, तुलसी ह रमायन, कबीर ह दोहा, रसखान ह पद अउ मीरा ह गीत ऐकर सेती रचे रिहिन के ऐला पढ़इया-सुनइयामन ल कोनो भी किसम ले डर झन लागय। दरअसल, डर ह मनखे के बाहिर म नइ, भीतर म होथे।
संगी! मेहा तो नौकरी के फंदा म फंदाय हंव। मेहा नौकरी ल छोड़े बर चाहथंव, फेर नौकरी ह मोला नइ छोड़त हे। अइसन मोरेभर हाल नइये, नौकरी करइया सौ म नब्बेझन नौकरी छोड़े बर चाहथें, फेर नइ छोड़ सकंय। नौकरी छोड़ के करहीं त का करहीं? जीयत ले मोर ददा काहय, बेटा! ‘उत्तम खेती, मध्यम बेपार, नीच नौकरीÓ। दरअसल, मोर नौकरी करे के बड़का कारन ‘छुट्टीÓ रिहिस। नौकरी ह अइसे काम ए जेमा मनखे ल हफ्ता म एक दिन तनखा समेत छुट्टी मिलथे अउ कतेक समे ले काम करे बर हे तेनो ह तय हे। सरकारी नौकरी होगे त झन पूछ। ऐमा तो अब्बड़ छुट्टी मिलथे। महीना के एक तारीख के बंधे बंधाय तनखा मिल जथे। फेर नौकरी ह ‘गुलामीÓ करई बरोबर तो आय। अब अइसन जीयई ह घलो का जीयई ए। पढ़ेन- लिखेन, नौकरी करेन, रिटायर होयेन अउ मर गेंन।
संगी! नानपन म मोर पेट म पीरा उठय त मोर बबा ह सीतला मंदिर म लेगत रिहिस। मंदिर तीर के माटी ल मोर पेट म लगावय तहां पीरा माड़ जावय। मरत बखत मोर बबा ह मोला कहे रहिस, बेटा! तोला कुछु तकलीफ होही, बिपदा आही त मंदिर म माथा टेकबेे, तोर सबो दुख दूरिहा जही। माथा टेके के रिवाज तो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघर सबो म हें। फेर, एक बात समझ म नइ आवय। जेन भगवान, अल्लाह, पीर पैगम्बर से हम सब मांगथन त वोला सोना, चांदी, रुपिया-पइया काबर चढ़ाथन। जउन सबला देथे, वोला का जरूरत हे! फेर, देवइया ल ‘कुछुÓ देके मनखे का सिद्ध करे बर चाहथे? ए सुवाल के जुवाब मेहा आज तक नइ खोज पायेंव।
संगी! खुसी के मामला म मेहा तो बद्किसमत हंव। फेर, खुस रहई ह हमर देस के करोड़ों मनखे के मजबूरी हे। खुस नइ रहिबोन त का मरबोन! चारोंमुड़ा असांति, अपराध, अनाचार, धोखाधड़ी, रिस्वतखोरी, लूटखसोट, छीनाझपटी के माहौल हे। का खुस रहे बर ए सब ह कम हे! अब ऐला ‘ताना मारत हेÓ समझव या मजबूरी।
जब हमर देस-समाज म जादाझन मनखे के हाल ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे होÓ जइसे हे, त अउ का-कहिबे।
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