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रायपुर

संस्करीति-संस्कार छूटही त बहुत कुछ छूट जही!

का- कहिबे

रायपुरMar 08, 2021 / 05:01 pm

Gulal Verma

संस्करीति-संस्कार छूटही त बहुत कुछ छूट जही!

संस्करीति-संस्कार छूटही त बहुत कुछ छूट जही!

गुलगुल भजिया खा ले, मोर संग तैं हर ददरिया गा-ले मन के गोरी, मोर संग तैं हर ददरिया गा ले, संग म जाबे, तरिया जाबे वो। खट्टा हाबय अमली गोरी जाम खा-ले वो, गोरी जाम खा-ले वो।’
मितान! बिना चासनी के मिठईमन मिठई नइ रहय। चना पिसान के बूंदी ल चासनी म बुड़ोबे त मोतीचूर के लाडू बन जथे। टेडग़ा-बेडग़ा जलेबी ह सक्कर के चासनी म नहा के रसीली हो जथे। इमरती ल घलो चासनी के समंदर म डुबकी लगाय बर परथे। रसगुल्ला ह तो चासनी म नहायेच रहिथे। गुलाब जामुन घलो चासनी के समाधि लगाके परे रहिथे। फेर, इही चासनी ल यदि पंगत के बीच म बगरा दे जाय त..!
सिरतोन! इही हाल आजकाल संस्करीति (संस्कृति) के होवत हे। गांव-गंवई के संस्करीति होवय, चाहे हमर देस के संस्करीति होवय। ऐमन ल छोड़ के आज के पीढ़ी ह अपन अलग-अलग रद्दा म रेंगत दिखई देथे। कोनो आधुनिकता के चाल चलत हे, त कोनो बिदेसी संस्करीति के, कोनो अंगरेजी म मोहाय हे। अतेक किसम-किसम के संस्करीति चासनी के बीच म अपन संस्करीति संस्कार, परंपरा, रीत-रिवाज ल धरे बेचारा आम मनखे चप-चप करत किंजरत हे। संस्करीति-संस्कार ह छूट जही त बहुत कुछ छूट जही।
मितान! ऐहा तो अइसन हे के कोनो खवइया के आगू म एक माली म मिठई रखे बर छोड़ के चासनी से भरे बांगा ल रखबे, जेमा किसम-किसम के मिठई तउरत हो। सबो जानथे के जिहां मीठ होथे, उहां चांटी अउ माछी घलो तो रहिबेच करथे। अइसन म का कोनो सचमुच म मिठई के मजा ले सकथे?
सिरतोन! एक बात अउ! फरवरी/ मार्च के महीना ह बजट फूंके के महीना होथे। जेन बिभाग कना जतका बजट बांचे रहिथे, वोला ये महीना के आखरी तक खरचे बर परथे। तेकर सेती जतका कारयकरम बछरभर म नइ होवय वोकर ले जादा ये महीना म ‘सलटा’ दे जाथे। अइसन देसभर म कतकोन बछर ले चलत आवत हे।
मितान! ये बछर तो कोरोना के सेती बजट ह धरे के धरे रहिगे। अब तो वोला खरचे घलो नइ जा सकय। काबर के कहुं, कुछु कारयकरम होवत नइये। हाल ये होगे हे के घोड़ी म बेटा अउ बाराती के नाव म ददा संग होथे। काबर के कोरोना के सेती सबो ल अपन जान (परान) के परे हे। ऊपर ले सरकार घलो ह कमती बराती जाय के नियम बनाय हे। आखिर लोगनमन के जान के सुवाल जउन हे। लोगनमन समझ नइ पावत हे नेवता (बारात) म जावंय के झन जावंय। नेवता देवइयामन के हाल घलो अइसे हो गे हे- ‘झारा-झारा नेवता हे, अपन घर खाहू झन, हमर घर आहू झन।’
जब हमर देस म संस्करीति, संस्कार ल छोड़ई ह बडक़ा समसिया बनत जावत हे। अइसन हालत ल देख-सुन के चासनी म बूड़े मिठई घलो ह करेला कस करू लागत हे, त अउ का-कहिबे।
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