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आज जमाना तो ‘बफेÓ के होगे हे !

locationरायपुरPublished: Jun 26, 2018 06:33:15 pm

Submitted by:

Gulal Verma

का-कहिबे

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आज जमाना तो ‘बफेÓ के होगे हे !

वाह! का सीन होवत रिहिस हे कभु पंगत के। पंगत म अइसे मनखे घलो राहंय, जउन उठे के नांव नइ लेवंय अउ परसोइयामन घलो अइसने राहंय, जेमन ल बइठ के खावत कोनो देखे होही! न वोमन ल कभु खाय के सुध राहय अउ न वोमन कभु खवावत ले थकंय। बर-बिहाव के पंगत म तो खवइया अउ खिलइया के अइसन मया-पिरीत ल देख के अड़बड़ मजा घलो हावय। फेर अब ऐहा नदावत जावत हे।
ये कोन नइ जानय के आजकाल समाज ल खावय बर नइ, बल्कि अपन रईसी जताय बर, अपन हेसियत बताय बर, अपन दुसमनमन ल जलाय बर, दुनिया ल देखाय बर बड़का-बड़का ‘बफे पारटीÓ देय जाथे। पइसा के बरबादी करे म थोरको पछतावा नइ होवय। न समाज के चिंता करंय, न गरीब के। अपन धन-दउलत ल कइसनो उड़ावय, कांही म खरचा करय दूसरमन बोलइया कोन होथे? वोहा इंसान नइ, धनवान ए। वोमन पारटी म मेहमानमन ल खाय-खवाय बर कमती, अपन रुदबा बढ़ाय बर जादा बलाथें। जनावर कस धक्का-मुक्की, छिनई-झपटई करके खाना पोगरई। ठाढ़हे-ठाढ़हे खवई। अइसन पारटी म एक कोती कम खवइया अउ जादा फेंकइया मनखे रहिथें तो दूसर कोती किंजर-किंजर के पेट के फूलत ले खवइया मनखे घलो होथें।
गांव-गंवई के कतकोन लोगन तो अपन सात पुरखा म एक संग अतेक खाना-खजानी ल नइ देखे राहंय! का खायं, कइसे खायं, कब खायं, कहां खायं इही ल सोचत रहिथें। झिझक के मारे कतकोन जिनिस ल छुवय तको नइ। खाय बर हे त खाव, नइ तो घर जाव। न कोनो रोकइया, न टोकइया, अउ न कोनो जोजवइया। अपन सुविधा के मुताबिक आ-जा सकथव। एक दिन म चार जगा जाय बर हे तभो जा सकथव। गेव, हाय-हलो कहेव, गिफ्ट देव अउ खिसक लव। अउ कहुं नइ जाय बर हे त बस एक फोन, मोबाइल जउन हे!
वइसे समे के मुताबिक रूढि़वादी रीति-रिवाज, परंपरा ल बदले बर चाही। समाज म समाये भेदभाव, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के गड्ढा ल पाटे बर जरूरी हे। फेर, अतेक नइ बदले बर चाही के सामाजिक एकजुटता, भाईचारा, मया-पिरीत, मान-जउन, अपनापन ह नदाय बर धर लय। ऐहा सौ आना सच आय, मांदी ह नदा जही तक ‘बफेÓ जइसे पस्चिमी संस्करीति ह समाज के गरीबमन बर बोझा बन जही।
‘मांदी खवई ह सिरिफ जात-बिरादरी, सगा-सोदर, जान-पहिचान के मनखेमन ल खवाय भर के परंपरा नोहय। ऐमा एकता के बहुचेत बड़ उद्देस्य छुपे हावय। अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सबोझन एक संग मांदी म बइठ के भोजन करे के।Ó फेर, आधुनिकता, भौतिक सुख-सुविधा के माया-जाल म उलझे धन-दउलत वालेमन न कभु, कहुं, ककरो सुने हें, न समाज के परवाह करे हें, न अभु सुनत हें, न गुनत हें, त अउ का-कहिबे।
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