2013 और 2015 में दिल्ली में दो बार विधानसभा चुनाव हुए। कारण था जनता का निर्णय। दिल्ली में कांग्रेस 1998 से 2013 तक 15 वर्ष सत्ता में रही। जनता परिवर्तन चाहती थी, लेकिन असमंजस में थी कि किसे चुने। विकल्प थे दो दल – भाजपा और आम आदमी पार्टी। जनाधार किसी को नहीं मिला।
भाजपा सरकार बनाने के जादुई आंकड़े से दूर थी, आम आदमी पार्टी का खाता खुला, दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल 49 दिन के मुख्यमंत्री बने और फिर एक वर्ष का लगा राष्ट्रपति शासन। जनता का निर्णय गलत साबित हुआ और इसलिए उसे दो वर्ष के अंतराल में दुबारा अपना प्रतिनिधि चुनने कतार में खड़ा होना पड़ा।
हालाँकि 2015 में जनता ने अपनी मन: स्थिति को सुदृढ़ करते हुए आम आदमी पार्टी को 70 में से 67 सीट दे दिया। बीजेपी के खाते में गए तीन सीट और कांग्रेस को मिला शून्य। जनता ने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी भाजपा और कांग्रेस को दरकिनार कर नए दल पर मुहर लगा दिया था। उसके एक फैसले ने भाजपा और कांग्रेस को दिल्ली में दूसरे और तीसरे नंबर की पार्टी बना दिया।
एक बार फिर फ्लैशबैक में चलते हैं। वर्ष – 2015, मौका – बिहार विधानसभा चुनाव। बिहार में सुशासन को परिभाषित करने वाले नीतीश कुमार को जनता ने उन लालू प्रसाद यादव से कम आंका जिनपर घोटालों के साथ-साथ प्रदेश को कई दशक पीछे धकेलने की तोहमतें लगी। इसी जनता ने नीतीश कुमार को वर्ष 2005 में लालू और राबड़ी यादव का विकल्प माना था।
अब बिहार की जनता के चुनने का तरीका समझिए। 2005 में नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग या एनडीए) का हिस्सा थी और वे भाजपा के चहेते साथी। जनता ने नीतीश की पार्टी को 88 सीट दी, सबसे ज्यादा। 55 सीट के साथ दूसरे नंबर पर भाजपा थी और 54 का आंकड़ा लेकर लालू की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) तीसरे पर। दस सीट जीतकर रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी चौथे पायदान पर थी और नौ विधायकों के साथ कांग्रेस पांचवे पर।
2010 में जनता ने नीतीश के दल को 115 सीट देकर फिर से सिरमौर बना दिया। भाजपा 91 सीट लेकर दूसरे नंबर पर थी। राजद व कांग्रेस का जनाधार आधे से भी कम हो गया। राजद को 22 व कांग्रेस को केवल 4 सीट मिले।
2015 में नीतीश ने पाला बदला और लालू तथा राहुल गाँधी का हाथ थामा। जनता का मन भी बदला और नीतीश को छोड़ उसने लालू पर विश्वास जताते हुए राजद को सबसे ज्यादा 80 सीटें दे दी। नीतीश को मिले 71 सीट। अबके भाजपा का ग्राफ गिरा और उसे मिले केवल 53 सीट। जबकि कांग्रेस का जनाधार सात गुना बढ़ गया और उसके 27 प्रत्याशी जीत गए। हालाँकि नीतीश ने जनता के फैसले को नकारते हुए लालू और राहुल गाँधी से गठबंधन तोड़ते हुए फिर भाजपा का हाथ थाम लिया।
परिवर्तन की बात भाजपा-शासित छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी कही जा रही है। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की तुलना में राजस्थान में जनता का सत्ताधारी दल से जल्दी मोहभंग हो जाता है। पिछले पांच चुनावों से (4 दिसम्बर 1993 से) राजस्थान की जनता भाजपा और कांग्रेस को बारी बारी से केवल एक कार्यकाल के लिए मौका दे रही है। जबकि पिछले पांच चुनावों में से पहले दो में छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की जनता ने कांग्रेस पर मुहर लगाया और बाद के तीन में भाजपा पर। इसका तात्पर्य है राजस्थान की जनता का निर्णय और तेवर ज्यादा सख्त है और छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश की जनता कड़े फैसले लेने के पहले सत्ताधारी दल को अपना प्रदर्शन सुधारने के लिए पर्याप्त समय देती है। हालाँकि इस बार इन राज्यों में यह परंपरा टूट भी सकती है और यदि ऐसा हुआ तो आगामी लोक सभा चुनाव के नतीजे एक बार फिर अप्रत्याशित होंगे।