गांव सूने हैं। किसान और मजदूर खेतों में हैं। पहले के चुनाव जैसा गानों से लैस चुनावी गाडिय़ां भी दौड़तीं हुई नजर नहीं आ रही हैं। गांव के चौपाल में चुनावी चर्चा तो है, पर मतदाता मौन है। मतदाताओं के मौन रहने के मायने तलाशे जा रहे हैं। चुनाव आयोग के कड़ाई की बात गांव वालों के कानों तक पहुंच गई है। वे अखबारों में चुनावी समाचार ढूंढते हैं, पर मिल नहीं रहा है। इससे ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को यह भी जानकारी नहीं हो पा रही है कि किस पार्टी से कौन खड़ा है? टोटल कितने उम्मीदवार हैं? वोटिंग की तारीख क्या है? वोट देने और नहीं देने की बात तो दूर की बात है।
राजिम क्षेत्र का नाम पूरे प्रदेश में जाना जाता है। पं. श्यामाचरण शुक्ल के जमाने में इसे हाईप्रोफाइल सीट मानी जाती थी, लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां के लोगों को उनकी दिल की बात को किसी भी शर्त में उगलवाया नहीं जा सकता। स्वभाव सीधे-सरल की है। परंतु उगलने के मामले में कट्टर हैं। पूछो तो साफ कह देते हैं अभी तो हमने कुछ सोचा ही नहीं है। जब चुनाव में वोट डालने की बारी आएगी, तब सोचेंगे कि किसको देना है।
राजिम से लगे गांव पीपरछेड़ी, सेम्हरतरा, बेलटुकरी, भैंसातरा, कौन्दकेरा, तरीघाट, कुण्डेल से लेकर ब्लॉक मुख्यालय छुरा तक रोड में जितने भी गांव हंैं, वहां पूछा गया कि वोट किसे देंगे? कमोवेश हर किसी ने इस प्रश्न के उत्तर को टालते हुए यही कहा कि अभी सोचे नहीं है। जब समय आएगा तब देखेंगे। सिर्री के पास बरदी चरा रहे रावत से पूछने पर उन्होंने कहा कि उन्हें तो यही नहीं मालूम कि कौन-कौन खड़े हैं? शाम को बरदी चलाकर घर जाते हैं तो सो जाते हैं। सुबह फिर अपने काम धंधे में।
छुईहा बस स्टैण्ड में एक किसान से बात हुई तो उन्होंने कहा कि जो किसानों की सुनेगा, उसी को वोट देंगे। घटारानी के पहले एक टपरानुमा होटल चलाने वाली महिला से पूछने पर दो टूक शब्दों में कहा कि कौन-कौन खड़े हैं? हमें नहीं मालूम। अभी तो हमारे पास कोई नहीं आया। कोई आएगा तब देखेंगे। पंक्तिया गांव में बरगद झाड़ के नीचे भजिया बना रहे एक ठेले में 3-4 लोगों की भीड़ थी।
पूछने पर उल्टे उन्होंने सवाल दागते हुए कहा कि आप लोग किस पार्टी में वोट दोगे? हमने बताया कि हम रिपोर्टर हैं। केवल माहौल जानने निकले हैं। उन्होंने न तो अपना नाम बताया और न ही अपनी पार्टी। सिर्फ इतना कहा कि रमन ठीक है। आगे के गांव लोहझर और छुरा बस स्टैण्ड में मौजूद खड़े लोगों से पूछने पर सब ने यही कहा कि माहौल यहां किसी भी पार्टी का नहीं दिख रहा है। सब कुछ ठण्डा है।
करीब 110 किमी के सफर में कहीं भी न तो कांग्रेस के झण्डे दिखाई दिए। न ही उनके कोई प्रचार करने वाला। यही हाल भाजपा और जोगी पार्टी का रहा। छुरा से लेकर फिंगेश्वर तक घाट, खाल्हे का इलाका कहलाता है। शुरू से ही मान्यता है कि घाट, खाल्हे के गांवों का वोट जिसमें भी पड़े एकतरफा पड़ता है। हार-जीत की दिशा घाट, खाल्हे के गांव ही तय करती है। लिहाजा राजनीतिक पार्टी के लीडरों को यह अच्छी तरह से मालूम है इसलिए वे भी आखिरी और अंतिम दौर में अपना डेरा-डंडा घाट, खाल्हे के गांवों में जमाते हैं।
इस इलाके के गांव मड़ेली, खड़मा, कोरासी, रानीपरतेवा, मुड़ागांव, अकलवारा, कसेकेरा, कनेसर, साजापाली, अमेठी, भैरानवापारा, सोरिद, बोरिद, नांगझर, करकरा, द्वारतरा, करचाली, देवसरा, बम्हनी, खैरझिटी, ओनवा आदि से गुजरते हुए टोह लेने की कोशिश की गई परंतु इसमें सफलता नहीं मिली। खेतों से धान की फसल काटकर लौट रहीं महिलाएं कुछ-कुछ दूरी पर अपनी टोलियों में साथ चल रही थीं को रोक-रोककर पूछने पर सभी का एक ही जवाब रहा, जब वोटिंग का दिन आएगा तब बताएंगे? अभी से कैसे बता दें।
इसके पहले खड़मा, रानीपरेतवा, मुड़ागांव, अकलवारा जैसे बड़े गांव में भी लोग मौन हैं। पूछने पर अपने जुबां खोलने के लिए कोई तैयार नहीं। इन सभी गांवों में धान की कटाई चल रही है। लोग धान काटने में व्यस्त हैं। कुल मिलाकर यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मतदाता मौन क्यों हैं?