रायपुर

यहां की साड़ी को देखकर डॉ. अब्दुल कलाम हो गए थे खुश, दिल्ली में दिया था राष्ट्रीय पुरस्कार

प्रदेश में कोसा उत्पादन के माध्यम से कई परिवार अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं

रायपुरFeb 06, 2019 / 12:00 pm

Deepak Sahu

यहां की साड़ी को देखकर डॉ. अब्दुल कलाम हो गए थे खुश, दिल्ली में दिया था राष्ट्रीय पुरस्कार

सूर्यप्रताप सिंह@रायपुर. छत्तीसगढ़ कला, संस्कृति का प्रदेश है। हम सब जानते हैं यहां की परंपराएं भी देशभर में अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती हैं, लेकिन एक और चीज है जो यहां पर सबसे ज्यादा प्रचलित है वह है यहां का कोसा उत्पादन। प्रदेश में कोसा उत्पादन के माध्यम से कई परिवार अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं।
ऐसे ही एक परिवार से मुलाकात हुई हैंडलूम एक्सपो में। रायगढ़ के रहने वाले जोगेश्वर प्रसाद देवांगन कोसा का स्टॉल लगाए हैं और उनका परिवार करीब पांच पीढिय़ों से कोसा उत्पादन करके कपड़े बनाने का व्यापार करते हैं। कोसा के परिधानों को रायगढ़ के महाराज चक्रधर पहना करते थे और राजपरिवार में काफी पसंद किया जाता था।
 

पांच पीढिय़ों से कर रहे उत्पादन
जोगेश्वर बताते हैं कि कोसा का उत्पादन और व्यापार उनकी यहां पिछली कई पीढिय़ों से किया जा रहा है और करीब पांच पीढिय़ों की जानकारी उन्हें हैं। उन्होंने बताया कि रायगढ़ के राजा चक्रधर इनके परिवार के द्वारा बनाए गए परिधानों को पहनते थे। जोगेश्वर की समिति में 17 लोग शामिल हैं जो कोसा उत्पादन के साथ साड़ी बनाने का कार्य भी कर रहे हैं। इनके यहां मशीन वर्क, हैंडवर्क और कई प्रकार की हैंडमेड साडिय़ा हैं।

हैवीवर्क में ग्रामीण सभ्यता
जोगेश्वर बताते हैं कि 13 साल पहले राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने इनकी समिति के साड़ी निर्माण को देखकर खुश होकर राष्ट्रीय पुरस्कार से दिल्ली में सम्मानित किया था। जिस साड़ी के लिए उनकी समिति को सम्मान मिला वह हैवी वर्क साड़ी थी। जिसमें धागे से छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति को उकेरा गया था। यह सम्मान उनकी समिति के सदस्य पद्मचरण देवांगन को मिला था।

तितली से बनाते हैं कोसा
जोगेश्वर ने बताया कि तितली के अंडों से कोसा उत्पादन का कार्य किया जाता है। जिसमें एक बार में एक तितली 75 अंडे देती है। उन अंडों को एक दोना में रखकर बारिश से पहले अर्जुन या साज के वृक्षों पर लटका दिया जाता है। पानी गिरने के बाद उन अंडों में तितली बनना शुरू हो जाता है और वहीं पत्तों के माध्यम से उन्हें भोजन मिलता है और वहां वे अपना मकान बना लेते हैं जिसे कोकून कहते हैं। कोकून को गर्म पानी में उबालकर मुलायम किया जाता है जिसके अंदर कोसा के सिरे निकलने शुरू हो जाते हैं।

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