मनमाड़े आगी बरसत हे अकास ले
ए बछर गरमी जादा बाढ़ गे हे। बाढऩा चाही! बाढ़ही तभे तो मनखेमन चेतहीं! वइसे, हर बछर थोर-थोर करके गरमी बाढ़त जावत हे। हमन तरिया, कुआं ल पाटन हन। बरसात के पानी ल सकेल के नइ रखत हन। रूख-राई ल काटत हन। रुख-राई नइ रहि त गरमी तो बाढ़बेच करही!
रायपुर
Published: May 02, 2022 04:43:03 pm
आज बहुचेत गरमी हे। वइसे काली घलो कम नइ रहिस हे। फेर, आज थोरकिन जादा हे। अभी ले ये हाल हे त आगू का होही! अखबार म समाचार पढ़ेंव के देसभर म रिकार्ड तोड़ गरमी परत हे। त अपन गांव के नानपन के संगवारी ल वोकर राजी-खुसी पूछे अउ गांव के हाल-चाल जाने बर फोन करेंव, का हाल हे, संगी! कइसे बीतत हावय। फेर, फोन करई ह मोला भारी परगे। मोर पूछते, गुस्सागे वोहा, बीतत तो तोर होही, इहां तो बीतावत नइ बीतत हे।
गरमी तो रइपुर म घलो परत हे। कईठन पारा-मोहल्ला, कालोनी म पानी नइये। लोगनमन रतजगा करत हें। पारा ह चइत, बइसाख, जेठ के महीना म नइ चघही त का कुवार-कातिक म चघही, ठठ््ठा करेंव मेहा।
वोहा चिढ़हत बोलिस, सिरीमान! एक तो लू के चलई, बोरिंग के सुखई, तरिया-कुआं के अंटई अउ दूसर बिजली के गुल होवई। बिजली ह ‘हरहा गरवा’ कस जब मन होथे आथे अउ जब मन होथे चल देथे। तेहां तो परदेस के राजधानी म रहिथस। उहां सउहें सरकार बइठे हे। मंतरी-साहेब जम्मो हे। तुमन ल का तकलीफ, तेकरे सेती ठठ्ठा करत हस जी, संगवारी! काहत फोन ल रख दिस।
बइसा के महीना म बाढ़े गरमी ह अवइया समे म आगी बरसे के नेवता देवई बरोबर आय। वइसे गरमी के अलगेच रोआब अउ रुतबा होथे। फेर चाहे वो मउसम के होवय या फेर पइसा अउ कुरसी के। दिमाग के गरमी वाले से कहुं पाला परगे त संबंध ह राख होय के डर बने रहिथे। गरमी म आमा घलो होथे। फेर, महंगई के गरमी अतेक के आम मनखे आमा नइ बिसाय सकय।
वइसे गरमी बाढ़े ले ‘पानी बेच के पइसा कमइया’ लोगनमन के निकल पड़े हे। बिपक्छी दल के नेता मन के नेतागिरी घलो चमकत हे। सरकार ल कोसे अउ जनता के हितवा बने के वोमन ल अब्बड़ मउका मिलत हे। जेती देखबे वोती लोगनमन पानी-पानी कहिके चिल्लावत हें। जनम के परोसी मन एक बाल्टी पानी बर दुस्मन बरोबर लड़ई-झगरा, गारी-गुप्तार, मारा-पीटी होवत हें।
ए बछर गरमी जादा बाढ़ गे हे। बाढऩा चाही! बाढ़ही तभे तो मनखेमन चेतहीं! वइसे, हर बछर थोर-थोर करके गरमी बाढ़त जावत हे। हमन तरिया, कुआं ल पाटन हन। बरसात के पानी ल सकेल के नइ रखत हन। सबो डाहर डामर, सीमेंट-गिट्टी के जंगल उगावत हन। परयावरन ल बिगाड़त हन। परदूसन फइलावत हन। रूख-राई ल काटत हन। जंगल लगाय के ककरो जांगर नइ चलत हे, फेर वोला जड़ ले काटत जावत हन। जंगल नइ रहि त गरमी तो बाढ़बेच करही!
वइसे गरमी म हर बछर कतको चिरई-चिरगुन, माल-मत्तामन पियास म मर जथें। मनखेमन मतलाहा पानी ल पीके बीमार पर जथें। बिजली ह घलो अब्बड़ पदोथे। लोगनमन दिनभर उमस म अउ रातभर भूसड़ी के चबई म हलाकान रहिथें।
जब लोगनमन बाढ़त गरमी ल देख के घलो परदूसन फइलावत हें, रूख-राई ल काटत हें, पेड़-पउधा नइ लगावत हें, पानी के बरबादी नइ रोकत हें, सरकार ह करोड़ों रुपिया खरचा करके जनता ल गरमी ले बचाय के बने बेवस्था नइ कर पावत हे। कोनो ह अपन जवाबदारी ल ईमानदारी से नइ निभावत हें, त अउ का-कहिबे।

मनमाड़े आगी बरसत हे अकास ले
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