फर्क विकास का है। जिस तरह अमेरिका में सोशल मीडिया का राजनीतिक उपयोग किया जाता है वैसा भारत (Indian Politics) में संभव नहीं। कैंब्रिज एनालिटिका (Cambridge Analytica) फेसबुक से साठगांठ कर आम जनमानस का डाटा उठाकर ट्रम्प को चुनावी लाभ पहुंचा सकती है, लेकिन भारत में इस तर्ज पर फायदा केवल शहरी क्षेत्रों में लिया जा सकता है, ग्रामीण अंचलों में नहीं।
सस्ते मोबाइल डाटा का लाभ सीमित दायरे में उठाया जा रहा है क्योंकि अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों में निर्बाध इन्टरनेट प्रदान करने के लिए बुनियादी अधोसरंचना खड़ा करने में अभी हमें और समय लगेगा। भारत की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अब भी अच्छी सड़क, 24 घंटे बिजली और पीने योग्य पानी की मांग करता दिखता है। इस जनता को जनप्रतिनिधि यदि सोशल मीडिया में अपना आकर्षक प्रोफाइल बनाकर रिझाने का प्रयास करेंगे तो चुनाव में उनकी जमानत जब्त हो जाएगी। जनाधार बढाने का एक ही तरीका है, जनता से रूबरू संवाद और उसकी समस्या के निवारण हेतु त्वरित प्रयास।
विडंबना देखिए, जिस जनता से राजनीतिक दल सीधे बात कर सकते हैं उससे सम्बन्ध प्रगाढ़ करने के लिए उन्हें सोशल मीडिया का सहारा लेना पढ़ रहा हैं। यह समझना आवश्यक है कि सोशल मीडिया जनप्रतिनिधि और जनता के बीच नजदीकी बढ़ा रहा है या दूरी। सत्य और तथ्य को सोशल मीडिया में शब्दों का अमलीजामा पहनाने के बजाय जनप्रतिनिधि यदि धरातल पर सक्रीय रहें तो जनता का उनसे कभी भी मोहभंग नहीं होगा। अफ़सोस, जनप्रतिनिधि और उनके दल व्यवस्था को बदलने के राजनीति करने के बजे सोशल मीडिया की राजनीति में फंसते जा रहे हैं।
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