सगुण और निर्गुण में तालमेल कैसे बिठाते हैं?
आध्यात्मक के पथ पर जिसने भी थोड़ी सी यात्रा की हो वह इस बात को समझ सकता है कि सगुण भी अंततोगत्वा निर्गुण की ओर ही ले जाता है। जब बच्चा नर्सरी में होता है तो उसे हर चीज चित्र दिखा-दिखाकर समझाते हैं। छोटी-छोटी कहानी से बताते हैं। वह सगुण की प्रक्रिया है। आकृति के साथ किसी चीज को समझाने में आसानी होती है। पर जब व्यक्ति समझ जाता है। नर्सरी का बच्चा एमए कर रहा होता है तो उसे एनीमेशन या कार्टून की जरूरत नहीं होती। वैसे ही सगुण के रास्ते से जब कोई व्यक्ति आगे बढ़ जाता है आध्यात्म के पथ पर तो फिर उसको निर्गुण ही उसको अपनी मंजिल दिखाई देता है। इसलिए मेरे लिए दोनों में अंतर नहीं है।
लोग नाटक देखने के लिए पैसे क्यों देना नहीं चाहते?
एेतिहासिक कारण होगा। उत्तर भारत में नाटकों के प्रति रुचि नहीं है। इसलिए हम सब कला रसिकों, कला प्रेमियों का दायित्व है कि इस बात को समझें कि एक नाटक को करने में बहुत खर्च होता है। बहुत से लोगों की उर्जाएं इसमें जुड़ती हैं। हॉल, लाइट, कास्ट्यूम, साउंड का खर्च होता है। इसका कारण शायद ये था कि कई शताब्दियों से जो नाटक होते थे वे राम लीला या रासलीला जैसे होते थे। लोगों की अपेक्षा रहती थी कि यह मुफ्त में ही दिखाए जाएं। उस समय समाज का जो धनवान वर्ग होता था वह शायद इसको इस्पांसर कर देता था। लेकिन आज की परिस्थिति में मुझे लगता है कि निश्चित रूप से सभी दर्शकों को एक तो अधिक से अधिक नाटकों को कलाओं को, मैं केवल नाटकों के लिए नहीं कहूंगा। नृत्य हो, संगीत हो, मूर्तिकला हो, पुतुल कला हो या हमारी लोक कलाएं हों। आप जब इन्हें देखने जाएं तो निश्चित रूप से उसको कुछ न कुछ आर्थिक सहयोग जरूर करें। भारतीय परिपेक्ष्य में कहूं तो हमारे यहां कलाकारों को भिक्षा दी जाती थी। लेकिन इसका अर्थ भीख नहीं था। भिक्षा आप उसी को दे सकते हैं जिसने दीक्षा ली हो। जो किसी विषय या विद्या में दीक्षित हो। इसलिए कलाकार हों या संन्यासी हो इन्हें समाज की सहायता करता है। आज का जो युग है हमें यह समझने की आवश्यकता है कि किसी मल्टीप्लेक्स में फैमिली के साथ जाते हैं तो हजार-दो हजार रुपए खर्च कर देते हैं, जो हमें चुभता नहीं। पर नाटक का टिकट हम दो सौ या तीन सौ में खरीदते हैं तो वह हमें बड़ी पीड़ा देता है। लेकिन इसको समझना चाहिए कि हमारी जितनी भी कलाएं हैं वह उन लताओं के सामान है जिनको समाज अगर सहारा नहीं देगा तो वे लताएं सूख जाएंगी।संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष बनने के बाद आपका मंचन कितना प्रभावित हुआ?
बहुत अधिक नहीं। जो लोग उस भावना से आते थे कि मेरा कोई कार्यक्रम करवा देंगे तो उनको इस्पांसरशिप मिल जाएगी, एेसे सभी आयोजकों से मैंने अपनी दूरी बनाए रखी। अभी तक मैंने कोशिश की एेसा कोई काम न करूं जहां कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट दिखाई दे। रही बात मेरे नाटकों की, तो मैंने पारिश्रमिक काफी बढ़ाकर रखा है ताकि मैं कम कार्यक्रम करूं क्योंकि आपको गुणवत्ता बनाए रखनी है तो यह भी जरूरी है कि आप कम प्रस्तुति करें और पूरी ऊर्जा के साथ करें। 20 साल से लगातार चाहे मैं मुंबई में रहूं या दिल्ली में। रोजाना अभ्यास करता हूं। अगर नॉर्मल न कर पाऊं तो मानसिक तौर पर करता हूं। मंचन को प्रभावित नहीं होने देता। मुझे लगता है कि ईश्वर की ओर से इतनी सारी जो विशेष प्रतिभाएं मुझे मिली हैं उसका मैं पूरा उपयोग करता हूं। अपनी क्षमता से करूं। पूरी शक्ति व ऊर्जा से करूं।सिर्फ महापुरुषों पर ही क्यों? स्वतंत्रता सेनानियों पर नाटक क्यों नहीं?
सभी नाटक मेरे लिखे हुए हैं। क्योंकि दूसरे का लिखा मैं याद नहीं कर पाता। यह मेरी बड़ी समस्या है। इसलिए मैं इसे अपनी भाषा में अपनी तरह से लिखता हूं। ताकि मैं उसे संवार सकूं। कोई भी संशोधन कर सकूं। एक नाटक मैंने सुभाष बाबू पर भी लिखना शुरू किया था। आपने स्वतंत्रता सेनानियों की बात कही है। उनके प्रति आगाध श्रद्धा है। 40 प्रतिशत नाटक लिखने के बाद अभ्यास करता हूं। आइने के सामने। सांगीतिक नाटक रहे हैं। देखकर मुझे लगा कि यह रोल नहीं करना चाहिए। गाने बनवाए थे। गीतों को स्वरबद्ध करवाया था। उनका चरित्र एेसा था कि मुझे लगा मेरा संगीत उनके चरित्र को कहीं पर थोड़ा सा मंद कर देगा। इसलिए निर्णय किया। इच्छा होते हुए भी
रायपुर के रंगकर्म पर क्या कमी पाते हैं?
जो कुछ भी सीखा हूं रायपुर के कारण जब भी जाता हूं मेरा मन बच्चों की तरह उन्हीं आंगन, गलियों में खेलने का करता कभी -कभी भूल भी जाता हूं कि मेरी उम्र अब 57 वर्ष हो गई है। रायपुर से लगाव तो है और मृत्युपर्यंत रहेगा। रायपुर में बहुत अच्छे कलाकार हैं। बहुत उम्दा थियेटर करने वाले हैं। मैंने जिनसे सीखा है। सबसे पहले तो मेरे पैरेंट्स ये दोनों नाटक किया करते थे। ताउजी। सप्रे स्कूल में लोकसेन दाादा। उनके सिखाए बहुत से नाटककार हैं। चाहे वे जलील रिजवी साहब हों या और भी। मिर्जामसूद साहब से सीखा। उर्दू की मदद की। रायपुर में जो नाटक कर रहे हैं वे खूब ऊर्जा के साथ करें। पूरे देश कीनाट्य गतिविधियां प्रमुख होती हैं। सुभाष मिश्रा बड़ी शिद्दत से नाट्य आंदोलन को लेकर चल रहे हैं। राजकमलनायकजी भी अच्छा कर हे हैं। कई संस्थाएं भी हैं। जो नियमित नाटक कर रही हैं। मेरा एेसा मानना है कि जब भारत के नक्शे को देखता हूं और हिंदी नाटकों की बात करूं तो रायपुर एक तीर्थ स्थान है। जहां पर बहुत अच्छे नाटक कार, बहुत अच्छे अभिनेता और निर्देशक हैं। मैं बड़ा गर्व करता हूं कि मैं उस मोहल्ले में बड़ा हुआ जहां हबीब साहब रहते थे। शंकर शेषजी वैसे तो बिलासपुर के थे लेकिन उनके लिखे नाटक हम लोग आज देशभर में कर रहे हैं। नाटक लेखकों की इस समय बहुत आवश्यकता है। ये कमी है। मुझे बहुत कष्ट देती है। अधिक से अधिक नए-नए विषयों पर नाटक लिखे जाने की जरूरत है। जितना हो सके। हमें यह भूलना नहीं है 2400 साल पहले भरतमूनि ने नाट्यशास्त्र लिखा था और कितना विकसित रहा होगा हमारा नाटक। आज से ढाई हजार साल पहले कि उस पर पूरा शास्त्र भरतमूनि लिख पाए। मैं चाहूंगा कि रायपुर का नाट्य आंदोलन भी भारत के शीर्ष आंदोलन में से एक बने।