सुरक्षित घर वापसी
रायपुरPublished: Nov 01, 2018 07:32:23 pm
पिछले एक दशक में ५० हजार से अधिक आदिवासियों ने जान सलामती के लिए सीमावर्ती सीमांध्र, तेलंगाना, ओडिशा और महाराष्ट्र के जंगलों में पनाह लिए हुए हैं
अभावों और असुविधा के बीच धैर्य बनाए रखने वाले बस्तर के आदिवासियों को हालात ने दोराहे पर खड़ा कर दिया है। अंदरूनी इलाकों में बसे आदिवासियों को जान बचाने के लिए या तो सुरक्षा बलों का साथ देना पड़ रहा है या फिर माओवादियों की शरण में जाना पड़ रहा है। और इनमें से किसी एक के पाले में जाने का मतलब दूसरे का दुश्मन बन जाना। इसके अलावा उनके पास जो तीसरा रास्ता बचता है, वह है पलायन का। वाकई यह विकल्प जंगल और जमीन से भावनात्मक जुड़ाव रखने वाले आदिवासियों के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। दरअसल बस्तर से आदिवासियों के पलायन के सिलसिले की शुरुआत माओवादियों के खिलाफ मुहिम सलवा जुड़ूम के साथ ही हो गई। माओवादियों और पुलिस के इन दो पाटों के बीच पिसने की बजाय आदिवासियों ने पलायन करना ही मुनासिब समझा। लिहाजा पिछले एक दशक में ५० हजार से अधिक आदिवासियों ने जान सलामती के लिए सीमावर्ती सीमांध्र, तेलंगाना, ओडिशा और महाराष्ट्र के जंगलों में पनाह लिए हुए हैं। इनमें से ज्यादातर लोग तेलंगाना के खम्मम और वारंगल जिले में डेरा जमाए हैं।
पलायन करने वालों में सिर्फ गरीब मजदूर ही नहीं, बल्कि ऐसे लोग भी हैं, जिनके पास काफी खेतीबाड़ी भी है और जहां वे भरपूर फसल लेकर खुशहाली में जीवनयापन कर रहे थे। मगर आज वे दाने-दाने को मोहताज हैं। वही वहां के स्थानीय लोगों का व्यवहार भी इनके साथ सही नहीं है। पलायन किए लोगों में ज्यादातर लोग सुकमा और बीजापुर जिले के हैं। इनकी सुरक्षित घर वापसी की बात बार-बार की जाती है। प्रशासन की पहल पर कुछेक गांवों के लोग वापस लौटे भी हैं, पर इनकी तादाद काफी कम है। दरअसल पलायन किए लोगों को पूरी सुरक्षा का यकीन दिलाने के बाद ही उनकी वापसी संभव हो सकती है। जो फिलहाल कहीं नजर नहीं आती। इसके लिए महज घोषणाओं की रस्म अदायगी से कुछ नहीं होने वाला। दूर-दराज के इलाकों में सुरक्षा का वातावरण तैयाार करना होगा। इसके लिए मजबूत इच्छाशक्ति के साथ ही यथार्थ के धरातल पर ठोस कार्रवाई की दरकार होगी।