रायपुर

महिलाएं भी कर सकती हैं पितृ तर्पण, धर्म ग्रंथों ने भी माना है सही

आज महिलाओं को हर जगह बराबरी का अधिकार प्राप्त है। ऐसे में सबके मन में एक प्रश्न ज़रूर उठता है कि महिलाएं श्राद्ध करें या नहीं?

रायपुरSep 12, 2017 / 10:38 am

Lalit Singh

रायपुर. आज महिलाओं को हर जगह बराबरी का अधिकार प्राप्त है। ऐसे में सबके मन में एक प्रश्न ज़रूर उठता है कि महिलाएं श्राद्ध करें या नहीं? यह प्रश्न भ्रम की स्थिति उत्पन्न करता है। अमूमन देखा गया है कि परिवार के पुुरुष सदस्य या पुत्र-पौत्र नहीं होने पर कई बार रिश्तेदारों के पुत्र एवं पौत्रों का सहारा लिया जाता है, लेकिन कन्या या धर्मपत्नी भी मृतक के अंतिम संस्कार और उनका तर्पण कर सकती है। अगर आप सोच रहे हैं कि यह आधुनिक युग की सोच है तो यहां आप गलत है। यह आधुनिक युग की सोच नहीं है। हिंदू, सिंधु, मनु स्मृति और गरुड़ पुराण में भी महिलाओं को पिंडदान आदि करने का अधिकार प्रदान करता है।
यहां तक शंकराचार्यों ने भी इस प्रकार की व्यवस्था को तर्क संगत बताया है कि श्राद्ध करने की परंपरा जीवित रहे और लोग अपने पितरों को नहीं भूलें इसलिए अंतिम संस्कार में अपने परिवार या पितर को मुखाग्नि दे सकती हैं। किसी भी मृतक के अंतिम संस्कार और श्राद्धकर्म की व्यवस्था के लिए प्राचीन वैदिक ग्रन्थ गरुड़ पुराण में पुत्र या पुरुष सदस्य के अभाव मे कौन-कौन से सदस्य श्राद्ध कर सकते हैं। उसका उल्लेख अध्याय 11 के श्लोक सख्या 11, 12, 13 और 14 में विस्तार से किया गया है जैसे:
पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे च सोदन: !
शिष्यो वा ब्राह्मण: सपिण्डो वा समाचरेत !!
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृ:पुत्रश्च: पौत्रके!
श्राध्यामात्रदिकम कार्य पुत्रहीनेत खग: !!
अर्थात ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू और पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि श्राद्ध कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुलपुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्धतर्पण और तिलांजलि देकर मोक्ष कामना कर सकती है।
जब राम ने नहीं सीता ने किया था राजा दशरथ का पिंडदान
वाल्मिकी रामायण में भी सीता द्वारा पिंडदान देकर दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। पौराणिक कथा के अनुसार वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे। वहां श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए। उधर दोपहर हो गई थी। पिंडदान का समय निकलता जा रहा था और सीताजी की व्यग्रता बढती जा रही थी। अपराह्न में तभी दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी। गया जी के आगे फल्गू नदी पर अकेली सीता जी असमंजस में पड़ गईं। उन्होंने फल्गू नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया।
भगवान राम ने मांगा था प्रमाण
थोड़ी देर में भगवान राम और लक्ष्मण लौटे तो उन्होंने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया। बिना सामग्री के पिंडदान कैसे हो सकता है। इसके लिए राम ने सीता से प्रमाण मांगा तब सीता ने कहा कि यह फल्गू नदी की रेत, केतकी के फूल, गाय और वटवृक्ष मेरे द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं। इतने में फल्गू नदी, गाय और केतकी के फूल तीनों इस बात से मुकर गए। सिर्फ वटवृक्ष ने सही बात कही। तब सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। दशरथ ने सीता जी की प्रार्थना स्वीकार कर घोषणा की कि सीता ने ही मुझे पिंडदान दिया। इस पर राम आश्वस्त हुए लेकिन तीनों गवाहों द्वारा झूठ बोलने पर सीता जी ने उनको क्रोधित होकर श्राप दिया कि फल्गू नदी- जा तू सिर्फ नाम की नदी रहेगी। तुझमें पानी नहीं रहेगा। इस कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी रहती है। गाय को श्राप दिया कि तू पूज्य होकर भी लोगों का जूठा खाएगी। केतकी के फूल को श्राप दिया कि तुझे पूजा में कभी नहीं चढाया जाएगा। वटवृक्ष को सीता ने आर्शीवाद मिला कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी। वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा। पतिव्रता स्त्री तेरा स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी। यही कारण है कि गाय को आज भी जूठा खाना पडता है। केतकी के फूल को पूजा पाठ में वर्जित रखा गया है और फल्गू नदी के तट पर सीताकुंड में पानी के अभाव में आज भी सिर्फ बालू या रेत से पिंडदान दिया जाता है।
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