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धर्म और राजनीति का घालमेल खतरनाक

locationरायपुरPublished: Dec 10, 2018 06:06:18 pm

Submitted by:

Gulal Verma

स्वार्थी नेताओं को चाहिए पद, पैसा और प्रतिष्ठा

cg news

धर्म और राजनीति का घालमेल खतरनाक

फिल्म संन्यासी का गीत – ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान, यह है गीता का ज्ञानÓ, सभी के लिए अकाट्य सत्य है। लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज सभी क्षेत्रों में नैतिक पतन हो रहा है। लगता है उन्हें ‘गीता ज्ञानÓ की कोई परवाह है ही नहीं। स्वार्थ व स्वहित ही ‘परमो धर्मो- परमो कर्मोÓ हो गया है।
वर्तमान में महज सत्ता के लिए धर्म का राजनीति और राजनीति का धर्म में घालमेल होना बेहद ही चिंतनीय है। क्योंकि, न केवल दोनों का कार्यक्षेत्र अलग-अलग है, बल्कि उनके उद्देश्य व मर्म भी भिन्न हैं। धर्म का कार्य है लोगों को सदाचारी और प्रेममय बनाना और राजनीति का उद्देश्य लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उनके हित में काम करना है। जब दोनों अपने मार्ग से भटकते हैं, अपनी सीमाएं लांघते हैं, तब विनाश और पतन शुरू होता है। आज भारतीय राजनीति में यह परिदृश्य स्पष्टत: नजर आ रहा है।
इन परिस्थितियों में यदि गैर-राजनीतिक परिवार के हों या फिर राजनीतिक परिवार के निस्वार्थ, ईमानदार, मेहनती युवा जनसेवा और देशहित के जज्बे से राजनीति में आना चाहते हैं, तो उनका पूरा समर्थन व सहयोग करना चाहिए। क्योंकि, आज लोकतंत्र की मजबूती के लिए देश को ऐसी ही सोच वाले जनप्रतिनिधियों की जरूरत है। राजनीति में जनसेवा को धर्म समझकर जनप्रतिनिधि काम करें तो आमजनों की ज्यादातर समस्याओं का समाधान तो यूं ही हो जाएगा। समाज में सुख, शांति, समृद्धि, सद्भाव, भाईचारा की ‘दिन दूनी, रात चौगुनीÓ बढ़ोतरी भी होगी, सो अलग।
चिंता की बात तो यह है कि भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और स्वार्थी तत्त्व लोकतंत्र में चुनाव को ज्यादा से ज्यादा पेचीदा व महंगा बना देना चाहते हैं। लिहाजा, ऐसे किसी भी षडय़ंत्र का देशवासियों को पुरजोर विरोध करना ही होगा। राजनीति और शासनतंत्र में अपराध की स्थिति भी गंभीर है। सुप्रीम कोर्ट में पेश रिपोर्ट में वर्तमान और पूर्व सांसद-विधायकों पर चार हजार से ज्यादा केस लंबित होना इस भयावह स्थिति को उजागर करता है।
नेता (जनप्रतिनिधि) बनने से पहले ही यदि ‘राजनीतिÓ का अर्थ ठीक से समझ लें तो जिम्मेदारी निभाने में शायद कोई अड़चन ही न आए। अफसोसनाक है कि आज अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी ‘राजनीतिÓ करने लगे हैं। इससे राजनीति की धारा बदलने का खतरा पैदा हो गया है। क्योंकि, ऐसे तत्त्व ही राजनीति की आड़ में पैसा-पद-प्रतिष्ठा आदि का लाभ उठाने के लिए तिकड़मबाजी, घपले-घोटाले, भ्रष्टाचार, गड़बड़ी, हेराफेरी, धोखाधड़ी करते हैं। कुल मिलाकर राजनीति को ‘व्यवसायÓ बना डालते हैं। हद तो यह है स्वार्थी राजनीतिज्ञों की पद-पैसा-प्रतिष्ठा की भूख उन्हें हिंसक तक बना देती है। देश में ‘दंगे-फसादÓ की घटनाएं ऐसी ही मनोवृत्ति की उपज है।
विडम्बना है कि सत्ता के लिए जंग सदियों से लड़ी जाती रही है। लोकतंत्र में स्वरूप जरूर बदला है, लेकिन ‘लड़ाईÓ तो अनवरत जारी ही है। ‘धर्मÓ तो बेईमानों, भ्रष्टाचारियों, स्वार्थियों का स्वभाव बदलने में सक्षम है। वहीं राजनीति में कौवे हंस की चाल चलते हैं। इतना ही नहीं, कायर भी शेर की खाल पहनकर दहाडऩे से बाज नहीं आते। अत: राजनीति से स्वार्थी व अपराधी तत्त्वों को जल्द ही दूर न किया गया तो एक दिन ऐसा न हो कि लोकतंत्र को तबाह कर क्रूर राजतंत्र का बीज फिर से बो दिया जाए।

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