अपने विश्वासपात्र प्रदेश भाजपा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनवाकर रमन सिंह ने यह साफ इंगित कर दिया कि उनका इरादा पार्टी चलाने का है और वो भी अपनी शर्तों पर। हालांकि उनके पुराने प्रोफाइल की चाह ने डेढ़ दशक तक संगठित और अजेय होने का दावा करने वाली भाजपा के अंतर्कलह और गुटबाजी को अंतत: सार्वजानिक कर दिया।
ऐसी बात नहीं कि सत्ता के तीन कार्यकालों में भाजपा में ध्रुवीकरण और बिखराव की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई। विरोध के स्वर तब भी फूटते थे। मुख्यमंत्री बनने का मंसूबा भी बहुतों ने पाला, लेकिन चुनावी वर्षों में सभी रमन सिंह के समक्ष हथियार डाल देते थे। वर्ष 2018 में परिस्थितियां बदलते ही भाजपा में विरोध के स्वर फिर ऊंचे हो गए। बृजमोहन अग्रवाल और ननकीराम कंवर ने नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए दिल्ली के चक्कर भी लगाए, लेकिन अमित शाह ने सुनी रमन सिंह की।
दरअसल, धरमलाल कौशिक के नेता प्रतिपक्ष बनने की पटकथा भाजपा के चुनाव हारने के पहले ही लिख दी गई थी। लेखक थे रमन सिंह, जिन्होंने हार की अवस्था में अपने लिए पहले ही ताकतवर कुर्सी का चुनाव कर लिया था। भाजपा की हार के अनेक कारण सामने आए, परन्तु रमन सिंह की छवि को नुकसान नहीं पहुंचा। इसी वजह से छत्तीसगढ़ में भाजपा की इतनी जबर्दस्त हार के बावजूद वे वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान की अपेक्षा अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ज्यादा करीब नजर आए।
भाजपा के चुनाव हारने के बाद जब कयास लगाया जाने लगा कि रमन सिंह केंद्र की राजनीति में जा सकते हैं, तब उन्होंने राज्य न छोडऩे की बात कही। राजनीति में पार्टी की प्रदेश इकाई का अध्यक्ष सर्वोपरि होता है और उसकी बात नेता प्रतिपक्ष भी मानने को बाध्य होता है। इसलिए रमन सिंह ने कभी भी नेता प्रतिपक्ष बनने की इच्छा जाहिर नहीं की। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में प्रदेश भाजपा की कमान परोक्ष रूप से उनके हाथों में ही थी, क्योंकि अध्यक्ष पद उनके चहेतों को ही मिलता रहा। अब प्रत्यक्ष रूप से वे प्रदेश इकाई चलाने की तैयारी में दिख रहे हैं।
रमन नहीं चाहते पार्टी में जोगी जैसा हश्र
वर्ष 2004 में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार के बाद पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का पार्टी में ग्राफ तेजी से गिरा। पार्टी संगठन में वरिष्ठ होने के बाद भी वे कभी प्रदेश अध्यक्ष नहीं बन पाए, हालांकि उन्होंने प्रयास भरसक किया। सोनिया और राहुल गांधी का विश्वासपात्र होने के बाद भी वे प्रदेश संगठन में अलग-थलग दिखाई देते थे।
दरअसल जब तक जोगी कांग्रेस में थे, गुटबाजी हावी थी। प्रदेश कांग्रेस संगठन को भी एक गुट का दर्जा मिला हुआ था। लेकिन सभी गुटों में जोगी के गुट को सबसे तगड़ा माना जाता था, संगठन के गुट से भी ज्यादा। फिर भी जोगी को इससे नुकसान ही हुआ, क्योंकि उनके विरोधी पार्टी की प्रदेश में लगातार तीन हार का जिम्मेदार उन्हें ही ठहराते रहे। अंतत: जोगी ने कांग्रेस छोड़ नई पार्टी गठित कर ली।
छत्तीसगढ़ भाजपा भी खेमों में बंटी हुई दिख रही है। रमन सिंह का भी एक खेमा है, लेकिन वे गुटबाजी में उलझने की अपेक्षा पूरे प्रदेश संगठन को चलाने राजनीति करना चाहेंगे। जोगी हश्र देखकर रमन फूंक-फूंक कर कदम रखेंगे, क्योंकि उन्हें अपने साथ-साथ पुत्र अभिषेक के राजनीतिक कॅरियर को भी संवारना है।