बहिष्कार का दंश
स्वसहायता समूह चलाने वाली छह महिलाओं को उनके परिवार समेत चार साल पहले बहिष्कृत कर दिया गया
बहिष्कार….प्रताडि़त करने की ऐसी परंपरा, जो किसी व्यक्ति या परिवार के लिए अभिशाप बन जाती है। छत्तीसगढ़ में इंसान का इंसान पर किया जाने वाला यह अपराध, कई तरह से सामने आता रहा है। बहिष्कार झेलने वाले की गलती कोई मायने नहीं रखती, लेकिन इस सजा को सुनाने वाले का रुतबा जरूर काम आता है। अपने रसूख के दम पर कुछ लोग समाज से बहिष्कार करने की अमानवीय सजा सुना देते हैं, इसे आम बोलचाल में हुक्का-पानी बंद कर देना है। ऐसा ही कुछ बालोद जिले के डौंडीलोहारा विकासखंड के खैरकटा गांव में हुआ। स्वसहायता समूह चलाने वाली छह महिलाओं को उनके परिवार समेत चार साल पहले बहिष्कृत कर दिया गया। ऐसा करने वालों को न तो शासन-प्रशासन का डर था, न मानव अधिकारों की फिक्र। खैरकटा में तो उन महिलाओं को सरकारी योजनाओं तक से वंचित कर दिया गया। कोई उन्हें योजना की जानकारी नहीं देता और यदि वे खुद पंचायत तक पहुंच जाएं तो अपमान झेलना पड़ता है। संवैधानिक तौर पर पंचायती राज के जनप्रतिनिधियों का यह व्यवहार पूरी व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा रहा है। जनप्रतिनिधि भी इस अमानवीयता में कैसे शामिल हो सकते हैं? अब आप सोचकर देखिए उस परिवार या व्यक्ति के बारे में जिसको यह अभिशाप झेलना पड़ता है उसके ऊपर क्या गुजरती होगी? गांव के लोग उसके यहां आना-जाना बंद कर देते हैं। यहां तक कि खुद को समाज के कोप से बचाने रिश्तेदार भी नाता तोड़ लेते हैं। हाट-बाजार से घर का जरूरी सामान नहीं मिलता। शादी के लिए रिश्ते नहीं आते और शोक के समय भी कोई ढांढस बंधाने वाला नहीं मिलता। सरकार के मंत्रालय में बैठे अफसर भी इस अभिशाप का दंश झेल चुके हैं। इस तरह के अमानवीय कृत्य को रोकने के लिए कायदे-कानून तो हैं, लेकिन प्रशासनिक खामियों से इसका कोई समाधान नहीं निकल पा रहा है। तभी तो इस सजा को सुनाने वाले बेखौफ होकर मानवता का बहिष्कार कर रहे हैं।