सभी रूपों में नाटक साथ रहा है…
मिर्जा मसूद, वरिष्ठ रंगकर्मी
टे क्नोलॉजी के युग में नॉलेज इंटेलीजेंसी बढ़ी है लेकिन इमोशनल इंटेलीजेंसी में गिरावट आई है। समाज में इमोशनल इंटेलीजेंसी को बढ़ावा देने और संवेदनशीलता को बनाए रखने के लिए नाटक का होना बहुत ही जरूरी माध्यम है। इसे ही व्यक्तित्व विकास कहते हैं। समाज में रहते हुए आदिकाल से संक्रमण, संघर्ष, सुख-दुख, संप्रेषण, मनोरंजन, संदेश, तौर-तरीके आदि सभी रूपों में नाटक साथ रहा है। समाज नाटक के साथ और नाटक समाज के साथ रहा है। देश में लोकमंच की अनंत धाराएं हैं जिससे समाज का मनोरंजन भी होता है। मैसेज भी पहुंचता है। किसी काल, इतिहास या समुदाय के लोगों के बारे में हम जितना जानते हैं, उन्हें जानने का सबसे अच्छा तरीका नाटक ही है। मनुष्य के व्यवहार, मनोविज्ञान, आशओं, आकाक्षाओं, संघर्षों और सपनों को समझने के लिए थियेटर सबसे कारगार माध्यम है। मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार किस युग में कैसा रहा है, उसमें बदलाव किस प्रकार से आया, कौन से संघर्ष अधिक तेज हुए, किन मूल्यों का संरक्षित किया, गिरावट, रहन-सहन, व्यवहार और भाषा से समाज का समग्र रूप रंगमंच से ही मालूम होता है। आज भी सभी तरह के माध्यमों की भीड़ में थियेटर एक शक्तिशाली माध्यम है जो न सिर्फ मनोरंजन तक सीमित है बल्कि भविष्य के प्रति आश्वस्त करने वाला साथ ही वर्चस्व के खिलाफ प्रतिरोध का प्रदर्शन करने वाला भी है। अवॉर्ड की संख्या पूछे जाने पर मिर्जा ने कहा कि पुरस्कार के लिए अप्लाई करना मेरे मिजाज में नहीं।
एेसे आए नाटक में
मिर्जा ने बताया कि प्राइमरी की पढ़ाई के दौरान जहीर वहशी स्कूलों में गांधीजी पर प्ले कराया करते थे। बस उसी दौर से थियेटर के प्रति अभिरुचि जागी और क्लासिक, आधुनिक और लोक शैली पर ७०-८० नाटकों का निर्देशन किया। रंग शिविरों का संचालन किया। लेखन और निर्देशन भी किया।
यहां गुरु-शिष्य की परंपरा बरकरार
जलील रिजवी वरिष्ठ रंगकर्मी
थियेटर से व्यक्ति हर धर्म का सम्मान करने वाला बनता है। वह सेंसटिव और खुले दिमाग का शख्स होता है। उसे कल्चर से प्यार होता है। रंगकर्म पैसे के लिए नहीं बल्कि सीखने के नजरिए से किया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में गुरु-शिष्य परंपरा समाप्त हो गई लेकिन रंगकर्म ही एेसा क्षेत्र है जिसमें यह सम्मान आज भी बरकरार है। 1961 में नाटक को लेकर अग्रगामी नाट्य समिति बनी जिसका संचालन आज तक जारी है।राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास शुरू
जलील रिजवी ने बताया कि रंगकर्म की हालत दयनीय है और रंगकर्मियों को कोई सुविधा नहीं मिल रही है। उन्हें न तो पेंशन मिलती है और न बीमारी में इलाज। इसलिए रंगकर्मियों के बच्चे में इसमें रुचि नहीं लेते। थियेटर आर्टिस्ट के हितों का ध्यान रखने के लिए नेशनल थियेटर काउंसिलिंग का रजिस्ट्रेशन किया गया है। राष्ट्रीय नाट्य मंच में केंद्र सरकार हर साल 80 करोड़ बजट देती है। यहां तीन साल में महज 20 से 25 स्टूडेंट्स ही पासआउट होते हैं। इस तरह सरकार वहां 2.40 अरब खर्च कर देती है। अगर इस संस्था को भी सरकारी अनुदान मिले तो हम शहर के अलावा गांवों में छिपी प्रतिभाओं को सामने लाएंगे। किराए के मकान के सवाल पर उन्होंने कहा कि थियेटर से इतना नहीं कमाया कि घर बना सकूं।
बंगाल से रायपुर आया थियेटर
रिजवी ने बताया कि रायपुर में थियेटर का आगाज बंगालियों ने किया है। मराठियों ने भी इसे आगे बढ़ाया। क्योंकि दोनों के समाज में कला पाई जाती है। रायपुर में ही 70-80 के दशक में 16-17 नाट्य संस्थाएं थीं। रामलीला और नौटंकी हुआ करती थी। टूरी हटरी में भी नाटक होते थे। रेलवे इंस्टीट्यूट शुरुआती दौर के नाटक का गवाह रहा है। वर्ष 1924 से रंगकर्म के इतिहास से मैं वाकिफ हूं।रंगमंच एक दर्शन, एक विचार है
राजकमल नायक वरिष्ठ रंगकर्मी
रं गमंच एक दर्शन है, विचार है। विगत, वर्तमान और आगत की मीमांसा है। वह सम-काल को तौलता है और इस तौल में दर्शकों की रुचि बनाए रखता है। समय को परिभाषित करता है। रंगकर्मी रंग-कला में निरंतर बने रहकर दीक्षित होता है। उसके विचारों में, भाषा में व्यवहार में धीरे-धीरे रंग-कला घर कर जाती है। इस तरह रंगकर्मी के पूरे व्यक्तित्व में एक सार्थक बदलाव आता है। चूंकि रंगमंच एक सामूहिक कला है। वह समूह द्वारा प्रस्तुत और दृश्य समूह द्वारा भागीदारी से अपना आकार लेता है। इसके साथ ही वह चरित्रों का महाकोष है। इस अर्थ में वह रंग कर्म को मांझता है, तराशता है और उसे प्रबुद्ध बनाता है। स्टेज डिजाइनर, सीनिक डिजाइनर, नाट्य संगीत, लाइट डेकोरेशन और रूप सज्जा में भी कलाकर दीक्षित होता है। रंग में कर्म जुड़ा हुआ है इसलिए रंगकर्मी को रंगकर्मठ होना चाहिए। फिर कर्मिष्ठ और कर्मकुशल होना चाहिए। क्यांेकि उसका काम देखने के लिए कर्मसाक्षी यानि नाटक के चश्मदीद गवाह भी सामने बैठते हैं।नाटक से निखर जाता है व्यक्तित्व
रंगकर्मी ममता नाहर कहती हैं रंग मंच एक दिन के लिए नही बल्कि हर दिन ये घटित होता है। पल-पल लिखने को पंक्तियां, दूसरों के व्यवहार का अवलोकन और उसके अनुसार किसी पात्र का निर्माण, गीत की धुन बनाना.. आदि अनेक रंग मंच से जुडी बाते जीवन का अंग बन जाती है। नाटक से व्यक्तित्व निखर जाता है। हम अपनी बातें अच्छे से व्यक्त कर पाते है। मानवीय संवेदनाओं को महसूस करना उनकी पीड़ा को अनुभव करना.. रंगमंच ही सिखाता है। हमें संवेदनशील बनाता है।थियेटर के लिए लिखने से मिलता है सुकून
14 अप्रैल 1960 को रायपुर मे जन्में अख्तर अली मूलत: नाटककार हैं। वे कहते हैं मुझे नाटक लिखने में सुकून मिलता है। एेसा लगता है कि मेरा जन्म थियेटर के लिए हुआ है। क्योंकि नाटक के प्रति रुचि आज तक वैसी ही है जैसी शुरुआती दौर पर थी। अब तक अख्तर ने निकले थे मांगने, किस्सा कल्पनापुर का, नंगी सरकार, विचित्र लोग की सत्यकथा, मौत की तलाश में, खुल्लम-खुल्ला, अमंचित प्रस्तुति, सुकरात , अजब मदारी गजब तमाशा आदि नाटक लिखे हैं। इसके अलावा नुक्कड़ नाटक – लॉटरी लीला, खदान दान, एक थी श्वेता ,नाटक की आड़ में शामिल है।
थियेटर बिना सब सूना
रंगकर्मी नीरज गुप्ता कहते हैं मेरी जिंदगी का थियेटर का खास महत्व है। इसके बिना जिंदगी अधूरी है। मैंने अभी तक एमपी, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, असम, मुंबई, दिल्ली, वाराणसी और ओडिशा में नाट्य प्रस्तुति दी है। जब भी वक्त मिलता है स्कूल व कॉलेजों में ट्रेनिंग देता हूं। दूरदर्शन व आकाशवाणी में भी प्रस्तुतियां दी है।