रायपुर

हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक, हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए…

शायर अतुल अजनबी ने बताई शायर बनने की दास्तां

रायपुरFeb 25, 2020 / 11:14 pm

Tabir Hussain

हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक, हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए…,हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक, हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए…,हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक, हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए…,हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक, हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए…,हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक, हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए…

ताबीर हुसैन @ रायपुर. बचपन ही से स्टेज पर बोलने और गाने का शौक था। स्कूल और कॉलेज के एनुअल फंक्शन में भाषण, डिबेट आदि कार्यक्रमों में हिस्सा लेता था। मुकाबलों में कोई न कोई शेर जरूर कोट करता था। इस तरह शेरो-शायरी में दिलचस्पी बढ़ती गई। 1987 में दिल बहुत उदास रहता था। पिता की मृत्यु हो चुकी थी। पढ़ाई में बहुत मेहनत थी। रातभर पढ़ता था उसी दरमियान रात के अंधेरे मेरे दिल में उतरकर रोशनी करने लगा। सितारे मेरी उदासी से मुतासिर होने लगे। चांद रोज मुझसे खैरियत पूछने लगा और मैं टूटे फूटे शेर कहने लगा। इस अंदाज में यकीनन कोई शायर ही अपनी बात रखता है। जीहां ग्वालियर के शायर अतुल अजनबी मुशायरे में शिरकत करने पहुंचे थे। इस दौरन उन्होंने शेरो-शायरी से जुड़ी बातें साझा की।

सीखने लगा बारीकियां

अतुल ने बताया, 1991 में एलआईसी नौकरी लग गई। फिर मैंने पूरा वक्त शायरी को देना शुरू किया। गजल की बारीकियों को सीखा और शेर, गजल कहने लगा। आस-पास की गोष्ठियों से शरुआत हुई। फिर इक्का-दुक्का कवि सम्मेलन में जाने का मौका मिला। वर्ष 2008 से मेरी शोहरत बढ़ती गई और देश के बड़े मुशायरों में शिरकत होने लगी। मेरी दो किताबे: शजर-मिज़ाज और बरवक्त मंजऱे आम पर आईं। अदबी दुनिया ने दिल की बाहें पसार कर मुझ नचीज़ का स्वागत किया। हिन्दोस्तान के कई पत्र-पत्रिकाओं में मेरी गजलें छपने लगी। मैंने उर्दू स्क्रिप्ट सीखी। इस तरह अदीबों ने अदब में मुझ पर ऐतबार किया।

यह शेर हुआ मकबूल

वर्ष 2007 के आसपास एक गजल में मालिक के करम से एक शेर हुआ। जब गजल मीर की पढ़ता है पड़ोसी मेरा, इक नमी सी मेरी दीवार में आ जाती है। ये शेर पूरी अदबी दुनिया में ख़ुशबू की तरह फैल गया और लोग पूछने लगे कि ये किसका शेर है?

मोरारी बापू अपने साथ ले गए लंदन

2008 और 2011 में दुबई के इंटरनेशनल मुशायरे में मुहब्बतें मिलीं। 2013 में दोहा कतर में बुलाया गया। 2015 और 2019 में बहरीन के अंतरराष्ट्रीय मुशायरे में शिरकत का मौक़ा मिला। फिर कथा वाचक मोरारी बापू मुझे 10 दिन के लिए लंदन ले गए। लन्दन घूमने के साथ साथ वहां मुशायरा भी हुआ। कुछ अदबी मुशायरे हो रहे हैं जहां शायरी सुनी जा रही है

धार्मिक उन्माद और सियासी रचनाओं से नुकसान

कवि सम्मेलन चाहे टीवी का हो या आम जनता का। सभी पतन की ओर है। घटिया तुकबन्दी, चुटकले और घर की हर परेशानी को बीच चौराहे पर बयां करना लोगों ने फैशन समझ लिया। कमोबेश यही हालत मुशायरे में भी है। धार्मिक उन्माद और सियासी रचनाओं ने मुशायरों को भी नुकसान पहुंचाया है। अच्छा लिखने के लिये अच्छा पढऩा पड़ता है। अच्छी सोहबत रखनी पड़ती है। अच्छा लिखना कम नहीं हुआ है, अच्छी चीजें बाजार में अवाम तक मुश्किल से पहुंचती जबकि खऱाब साहित्य आसानी से लोगों तक पहुंच जाता है।

दोस्तों ने कहा तो रख लिया तखल्लुस

मैं अपने कॉलेज में यूनियन का सचिव था। कॉलेज की मैगज़ीन छप रही थी मैंने भी अपनी टूटी-फूटी गज़़ल छपने के लिए दी। उसी समय दोस्तों ने कहा कि कुछ तखल्लुस रखो तो मैंने अजनबी रखा। ऊपर वाले ने इस नाम से शोहरत अता की। इसलिए ये तखल्लुस आज भी जिंदगी का हिस्सा है। पेश है एक शेर- हम अजनबी रहेंगे जमाने में कब तलक हमको कोई शिनाख्त चमकदार दीजिए।
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