ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि देश-प्रदेश की राजनीति को नए चेहरे कैसे मिलेंगे? जबकि कांग्रेस सरकार के अपने घोषणा-पत्र में छात्र-संघ चुनाव (Student Union Election) करवाए जाने का उल्लेख है। मौजूदा राजनेता मान रहे हैं कि छात्र संघ चुनाव से नई पौधे तैयार होती है। चुनाव जरूरी है। उधर, प्रदेश में कई नाम हैं जिन्होंने छात्र राजनीति से शुरुआत की और देश-प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हैं। सांसद, विधायक और मंत्री बने। हालांकि सरकार कोरोनाकाल को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रही है।
छात्र संघ चुनाव न होने से ये नुकसान
1- छात्रों के मुद्दे उठाने वाला कोई नहीं है। आंदोलन करने वाला कोई नहीं है।
2- राजनीति में नई पढ़ी-लिखी पीढ़ी नहीं आ पा रही, जिसकी आज सख्त जरूरत है।
कई नेताओं और छात्र नेताओं ने कहा- नाम न छापने की शर्त पर कई नेताओं और छात्र नेताओं ने कहा कि मौजूदा सांसद, विधायक, मंत्री खुद नहीं चाहते कि चुनाव हो। इससे उनको ही नुकसान है। क्योंकि छात्र नेता तैयार हुआ तो वह टिकट की दावेदारी करेगा। ऐसे में कुर्सी का संकट खड़ा हो जाएगा।
छात्र नेताओं से राजनीति में ऊंचाई तक पहुंचे ये नेता
मो. अकबर- राज्य सरकार में वन, परिवहन मंत्री एवं सरकार के प्रवक्ता हैं।
रविंद्र चौबे- राज्य सरकार में कृषि मंत्री, सरकार के प्रवक्ता हैं।
बृजमोहन अग्रवाल- अविभाजित मध्यप्रदेश सरकार मंत्री रहे। पूर्व की भाजपा सरकार में मंत्री रहे। अभी विधायक।
सरोज पांडेय- भाजपा से राज्यसभा सांसद हैं।
सुनील सोनी- भाजपा से लोकसभा सांसद।
दीपक बैज- बस्तर से सांसद।
मनोज मंडावी– विधानसभा में उपाध्यक्ष हैं।
प्रेम प्रकाश पांडेय- भाजपा शासन काल में मंत्री रहे।
– अजय चंद्राकर, भाजपा विधायक एवं भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य। – देवेंद्र यादव, कांग्रेस विधायक। – विकास उपाध्याय, कांग्रेस विधायक एवं संसदीय सचिव। – विनय जायसवाल, कांग्रेस विधायक। – रेखचंद जैन, मौजूदा कांग्रेस विधायक। – देवजीभाई पटेल, भाजपा विधायक रहे।
कुछ और प्रमुख नाम
– अश्वनी दुबे, धरसींवा से विधायक रहे। – शेष नारायण शुक्ला, मंडी बोर्ड में पदाधिकारी रहे। – एजाज ढेबर, महापौर रायपुर हैं। – प्रमोद दुबे, रायपुर नगर में महापौर रहे, अभी सभापति हैं। – मृत्युजंय दुबे, 4 बार से नगर निगम रायपुर में पार्षद हैं।
जानिए, 2017 में आखिर क्यों लगी थी रोक-
23 अगस्त 2017 को सरकार ने लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को आधार बनाते हुए छात्र संघ चुनाव पर रोक लगा दी। सरकार ने कुलपतियों की उस रिपोर्ट का भी हवाला दिया था, जिसमें कुलपतियों द्वारा चुनाव से शिक्षण संस्थाओं का माहौल खराब होने की बात कही गई थी। साथ ही कहा था कि इससे पढ़ाई प्रभावित होती है।सरकार ने कुलपतियों से कहा कि किया कि वे मनोनयन प्रक्रिया से छात्र प्रतिनिधियों का चयन करें।
1991- सुंदरलाल पटवा की सरकार ने लगाई रोक। 1994 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने हटाई रोक।
1996-97- तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने रोक लगा दी।
– अविभाजित मध्यप्रदेश के पहले की स्थिति।
2000- छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने रोक हटाई, चुनाव करवाए। मगर, 2002 में रोक लगा दी गई।
2003- 2005-06 में डॉ. रमन सिंह की सरकार ने चुनाव करवाए, मगर फिर रोक लगा दी। 2012-13 से 15-16 तक चुनाव हुए। तब से रोक लगी हुई है।
(- छात्र राजनीति में सक्रिय, रायपुर नगर निगम में 4 बार के पार्षद मृत्युजंय दुबे ने जैसा बताया।)
छात्र राजनीति से ही हमारी पहचान
कांग्रेस सरकार के घोषणा-पत्र में छात्र संघ चुनाव करवाने का उल्लेख है, और होने भी चाहिए। क्योंकि हमारी पहचान उसी से है। लगातार चुनाव और फिर कोरोना के चलते सारी गतिविधियां ठप रहीं। मगर, हम जल्द उच्च शिक्षा मंत्री और मुख्यमंत्री से मिलकर चुनाव करवाने की मांग करेंगे।
– नीरज पांडेय, प्रदेश अध्यक्ष, एनएसयूआई
छात्र राजनीति से सीखने का अवसर मिलता है। बहुत से नेता है, छात्र राजनीति करके ही आगे बढ़े हैं। पिछले दो साल कोरोना की वजह से बहुत कुछ प्रभावित हुआ है। चुनाव का फैसला उच्च शिक्षा विभाग करता है।
– मोहम्मद अकबर, वन मंत्री
हर साल चुनाव होने से नया राजनीतिक नेतृत्व उभरता है। नियम बनाकर चुनाव करवा सकते हैं, दिल्ली में होते ही हैं। हां, असामाजिक तत्वों ने घुसकर चुनाव की फिजा को खराब किया था। इसके कारण भाजपा शासन काल में रोक लगाई थी। राजनीति को नई पीढ़ी की आवश्यकता है।
– बृजमोहन अग्रवाल, विधायक एवं पूर्व मंत्री, भाजपा