अपने मिश्रित प्रजाति के बेशकीमती जंगलों के लिए मशहूर बस्तर के जलस्तर में भी तेजी से गिरावट आ रही है। आंकड़े बताते हैं कि भू-जल स्तर में हर साल औसतन एक मीटर की गिरावट आ रही है। बीते दशक में भूजल १० मीटर नीचे चला गया। यदि समय रहते इस ओर
ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थिति भयावह हो सकती है।
दरअसल विकास के नाम पर यहां जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है। वहीं शहरीकरण के मद में जल संरक्षण की अतीत की परंपरा को भी विस्मृत कर दिया गया। पुराने समय में समूचे बस्तर अंचल में तालाब हुआ करते थे। यहां उत्तर भारत की तरह नदियों की श्रृंखला नहीं है। इसलिए यहां का पूरा जनजीवन तालाबों पर ही आश्रित था। आज भी यहां सालाना तकरीबन १४६८ मिमी बारिश होती है। पहले बारिश के पानी का एक बड़ा हिस्सा तालाबों में जगा हो जाता था। जो यहां की सुख समृद्धि का मूल था। पर आज हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। बस्तर मुख्यालय
जगदलपुर का एक बड़ा हिस्सा ड्राइ जोन में तब्दील हो चुका है। जहां टैंकरों की मदद से पानी की आपूर्ति की जाती है। इंद्रावती नदी के तट पर बसे गांवों के हैंडपंपों से गर्मी के दिनों में पानी की जगह हवा निकलती है।
आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से तालाबों पर ही बस्तियां बसनी शुरू हो गई। लिहाजा, भू-जल का दोहन जोर-शोर से चालू हो गया। कुओं की जगह नलकूप और तालाबों की जगह बांध ने ले ली। जो न तो परंपरा के विकल्प थे और न ही बन पाए। यहां कुओं और तालाब के निर्माण की सुदीर्घ परंपरा रही है। हर तालाब और कुएं के निर्माण के पीछे कई किवंदती जुड़ी होती थी। वक्त के साथ लोग भूल गए कि ये सिर्फ जलस्रोत ही नहीं, बल्कि परंपरा का हिस्सा भी है। तालाब जल की सतत और सुनिश्चित आपूॢत तय करते थे। भू-जल स्तर बस्तर में ही नहीं, बल्कि प्रदेश के ज्यादातर हिस्से में हर वर्ष गिर रहा है। विकास की अपनी चिंताएं होती हैं। संकट संवेदना और समझदारी का है या फिर जल का? हम अपने पूर्वजों की जल संरक्षण परंपराओं का पालन कर रहे हैं या उस पर पानी फेर रहे हैं।
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