कलाकर चाहिए के इश्तिहार से बदला मन
प्रणव कहते हैं, फिल्मों के प्रति इतना जुनून था कि अगर कोई कहता पत्थर उठाना है तो भी मैं तैयार हो जाता। पिता फॉरेस्ट में थे मां टीचर। लेकिन उनने मुझे रोका नहीं। साल 1998 में जी टीवी के एक विज्ञापन पर नजर पड़ी। कलाकार चाहिए। खैरागढ़ में मैंने ऑडिशन दिया और सलेक्ट भी हो गया लेकिन किसी वजह से वह प्रोजेक्ट डब्बे में चला गया। उसके बाद मैं किस्मत आजमाने मुम्बई गया। हर यंगस्टर्स की तरह मेरा भी स्ट्रगल रहा। लिंक नहीं बना तो मैं लौट आया। यहां साप्ताहिक बाजारों में कपड़े बेचा करता था। उसी समय मोर छइन्हा भुइँहा लगी थी। पोस्टर देख सोचा कि मुम्बई में तो कुछ कर नहीं पाया लेकिन यहां जरूर कुछ करना है। प्रेम चन्द्राकर के अंडर में मैंने रील एजेंट भी बना। लेकिन जब जैन ने मुझे अपना असिस्टेंट बनाया तो ध्यान लेखन की ओर बढऩे लगा और मैंने उसी पर फोकस करना शुरू कर दिया।लेखन, निर्देशन और सम्पादन
मेरी फिल्मों में मैं डायरेक्टर के साथ लेखक और सम्पादक भी खुद होता हूँ। संवाद भी मेरे होते हैं हालांकि डार्लिंग … के लिए लगभग 20 फीसदी डायलॉग शारदा अमित ने लिखे हैं।ऐतिहासिक फिल्मों के सब्जेक्ट हैं पर बजट नहीं
एक सवाल पर कहा कि छत्तीसगढ़ में ऐतिहासिक फिल्मों के लिए बहुत से सब्जेक्ट हैं लेकिन बजट नहीं। करोड़ों खर्च कर आप 25 टॉकीजों से उतनी रिकवरी नहीं कर पाएंगे। अगर आप फि़ल्म में भव्यता नहीं ला सकते तो उस सब्जेक्ट को न छूना ही बेहतर होगा।