वैदिक मंत्रोच्चार के साथ आचार्यो द्वारा पूजन कराया गया। शहर के सिद्ध हठीले हनुमान मंदिर गंजबाजार में महिलाओं ने हलषष्ठी पर्व पर भजन कीर्तन कर सामूहिक पूजन किया। यहां पाठ पं.दुर्गा प्रसाद शर्मा ने पूजन कराया।
श्रद्धापूर्वक सुनीं पौराणिक कथा
पंडित दुर्गा प्रसाद शर्मा, पं.कृष्णकांत चतुर्वेदी ने पौराणिक कथा को सुनाई। उन्होंने बताया भगवान विष्णु के अवतार के समय श्री कृष्ण ने कहा कि ये व्रत ममतामयी मां की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान भोलेनाथ की कृपा से एक दासी पुत्र आग के शोलों में पड़े होने के बाद भी जीवित हो उठा।
कथा वृतांत में सुभद्रा ने अपने बेटे अभिमन्यु के युद्ध में मारे जाने पर और द्रोपदी ने अपने पांच पुत्रों के युद्ध में सद्गति प्राप्ति के लिए दुखी होकर किया था।
अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने अश्वस्थामा के ब्रम्हास्त्र से जुड़े हुए गर्भ की रक्षा के लिए किया था। कहते हैं कि माता-पिता के जीवित होते हुए भी पुत्र की मृत्यु होना यह सबसे दुखद घड़ी होती है। भगवान शिव की आराधना और इस व्रत के करने से उत्तरा ने जीवित और स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया था। राजा सुभद्र जिनकी पत्नी का नाम सुवर्णा था। उन्होंने भी भादों मास की कृष्ण पक्ष हलषष्ठी का व्रत किया। उनके पुत्र हस्ती ने जन्म लेकर हस्तिानापुर की राजगद्दी पर बैठकर हस्तिनापुर का राज्य
संभाला था।
पुत्र के लिए की कठिन तपस्या
कथा प्रसंग में बताया गया कि सुवर्णा का पुत्र बचपन में ही जब दासी के साथ नदी में नहाने के लिए गया। वह नदी के गहरे स्थान पर जाकर डूब गया। इसके बाद जब दासी रोती बिलखती हुई राज महल में पहुंची तो रानी में क्र ोध में आकर उसके पुत्र को लाल गर्म आंवा में डाल दिया। दासी दुखी होकर जंगल में चली गई। दासी ने भूख प्यास को सहन कर जंगल में महुआ के पुष्पों, भैंस के दूध दही से भगवान शिव शंकर की पूजन आराधना की।
शिवजी की कठिन तपस्या करने के बाद उसे मनवांछित फल मांगने का अवसर प्राप्त हुआ। उसने भगवान महादेव से अपने पुत्र को जीवित होने का वर मांगा। भगवान शिव की कृपा से ऐसा ही हुआ। तभी से महिलाएं इस व्रत को पुत्रों की दीर्घायु की कामना के लिए करने लगीं। बरसों पुरानी सनातन की यह परंपरा चली आ रही है।