वैष्णव मंदिरों में मद्दम हो रही हवेली संगीत की धुन
अष्टछाप कवियों ने सम्भाली राग, भोग व श्रृंगार की अनमोल-अनूठी विरासत

राजसमंद. पुष्टिमार्गीय परम्परा में कलाओं की खास जगह रही। इनमें वल्लभाचार्य व गोविन्द विट्ठलनाथ के शिष्यों द्वारा आगे बढ़ाई गई अष्ठछाप कला में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति के लिए राग, भोग व श्रृंगार के मिश्रण व अनूठी संगीत शैली से पहचाने जाने वाले 'हवेली संगीतÓ का 'रागÓ अब बिख रहा है। आज इस कला को बचाने के लिए कोई गम्भीर कोशिशें नहीं हो रही हैं।
फीका पडऩे लगा हवेली संगीत
नाथद्वारा में श्रीनाथजी, विट्ठलनाथजी, कांकरोली में द्वारकाधीशजी के मंदिरों में हवेली संगीत आज भी सुनाई देता है, लेकिन इस संगीत के लिए प्रयुक्त होने वाले प्राचीन वाद्य यंत्र अब सिमटने लगे हैं। साथ ही इसे गाने वाले भी अब काफी कम रह गए हैं। ऐसे में इसे बढ़ावा देने के लिए सरकार को इसे संरक्षण के लिए आगे आने की जरूरत है, संगीत से युवाओं, संगीत, कला व रोजगार को जोडऩे की जरूरत है, मगर सरकार और कला के संरक्षण के लिए जिम्मेदार कुछ खास नहीं कर रहे हैं।
हवेली संगीत के नाम से हुआ मशहूर
वल्लभाचार्य व गोविन्द विट्ठलनाथ के शिष्यों आठ शिष्यों सूरदार, कुंभनदास, परमानंददास, नंददास, चतुर्भुजदास, गोविन्द स्वामी, छीतस्वामी समेत आठ संतों ने भगवान श्रीकृष्ण, राधा के कीर्तनों के लिए मौसम, ऋतु, त्योहार के अनुसार अलग-अलग वाद्य यंत्रों पर 54 राग-रागनियों में भजन गायन की परम्परा शुरू की। करीब सवा पांच सौ वर्ष पहले सन् 1500 के आसपास पुष्टिमार्गीय संत हरिवंशराय ने इस परम्पराग को आगे बढ़ाया।
मौसम व त्योहार के अलग-अलग 54 राग
अलग-अलग मौमस, ऋतु, त्योहार के अनुसार वर्षभर में अलग-अलग तरह के 54 राग-रागनियों में प्राचीन वाद्य यंत्रों पर भगवान को रिझाने के लिए गाए जाने वाले भजन की परम्परा पर अब खतरा मंडराने लगा है। ऐसे में इसे सरकार की ओर से संरक्षण इसे बढ़ावा दिए जाने की दरकार है।
525 वर्षों पुरानी संगीत परम्परा
ठाकुरजी के मंदिर हवेलियों में होने से इन भक्ति भरे भजनों की संगीत को हवेली संगीत के नाम से जाना जाता है। भारतीय प्राचीन शास्त्रीय संगीत पर आधारित इन राग-रागनियों में गाए जाने वाले संगीत का मन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। वहीं प्राचीन वाद्य यंत्र मन को सुकून देने के अलावा भक्ति के रस में गोते भी लगवाते हैं। यह संगीत ठाकुरजी की सेवा में गाया जाता है।
क्या कहते हैं जानकार
हवेली संगीत अनुपम व अनोखा होने के साथ भारतीय प्राचीन शास्त्रीय संगीत की धरोहर भी है। संगीत में ऋतु, मौसम, त्योहार, दिन विशेष के अनुसार विभिन्न प्रकार की 54 राग-रागनियों में श्रीकृष्ण भक्ति के लिए वल्लभाचार्य व गोविन्द विट्ठलनाथ के शिष्यों द्वारा इसका गायन किया जाता रहा है। अब इस संगीत कला को संरक्षण की दरकार है। ऐसे में सरकार व उदयपुर स्थित पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र को भी इस पर ध्यान देना चाहिए। दिल्ली, मुम्बई, जयपुर के अलावा अन्य स्थानों पर भी कलाकारों को महत्व व सम्मान मिलना चाहिए, ताकि ये अनमोल परम्पराएं जीवित रह सकें।
डॉ. गगनबिहारी दाधीच, चित्रकार, क्ले व सेरेमिक कलाकार, नाथद्वारा
पुष्टिमार्गीय हवेलियों में आठ कवियों जो कि महाप्रभु वल्लभाचार्य और गोस्वामी विट्ठलदासजी के शिष्य थे। प्रभु कृष्ण के लीलाओं को विशेष शैली में ऋतु व त्यौहार के अनुसार गाते थे। पुष्टिमार्गीय सेवा में भगवान श्रीकृष्ण की सेवा के लिए राग, भोग व श्रृंगार का बड़ा महत्व है। इसमें भी राग कीर्तन का तत्व पुष्टिमार्गीय सेवा की आत्मा है। आज भी ये हवेली संगीत ठाकुरजी की हवेलियों में भजनों के रूप में गूंजता है। संरक्षण से ये कला और निखरेगी।
डॉ. राकेश तैलंग, पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी, वरिष्ठ साहित्यकार, राजसमंद
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