भट्टी की आंच पर तपते हुए बच्चों के लिए खाना बनाने का काम कर रही हैं। वर्ष 2018-19 एवं वर्ष 2019-20 में अन्नपूर्णा योजना में दूध गर्म करने तक का कार्य भी इनके जिम्मे था। उन पर दोहरी जिम्मेदारी थी। उन्हें जो मानदेय मिल रहा था, वह अकुशल श्रमिक की न्यूनतम मजदूरी का चौथा हिस्सा भी नहीं था। उनकी इस पीड़ा को एकतरह से सरकार ने अनसुना ही कर दिया है। कुक कम हेल्पर को गहलोत सरकार के सालाना बजट से भी काफी उम्मीद थी। कुक कम हेल्पर मानदेय बढऩे का इंतजार करती रहीं, लेकिन चार साल में हर बजट के बाद उन्हें निराशा ही हाथ लगी। आखिरकार अब जब सरकार ने मानदेय में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी तो कर दी, लेकिन सकल मानदेय काफी कम होने से केवल 132 रुपए ही उनके लिए बढ़े।
सरकारी विद्यालय में कार्यरत कुक कम हेल्परों ने बताया कि पिछले काफी समय से मानदेय बढ़ाने की मांग की जा रही थी। पूर्व में भाजपा सरकार ने वित्तीय वर्ष 2018-2019 में मात्र 120 रुपए बढ़ाकर मानदेय 1200 से 1320 रुपए किया था। अब तीन वर्ष बाद बार सरकार ने फिर 132 रुपए ही बढ़ाए। मानदेय अब 1452 रुपए मिलेगा। उनका दर्द है कि महंगाई के जमाने में यह नाकाफी है। उनको यह भी शिकायत है कि इसके विपरीत मनरेगा में श्रमिकों को 225 से 235 रुपए तक मजदूरी मिलती है। ऐसे में पोषाहार पकाने के लिए कुक कम हेल्पर का इंतजाम करना शिक्षकों के लिए भी टेड़ी खीर है। गौरतलब है कि राज्य सरकार ने गत मार्च में ही प्रदेश में अकुशल श्रमिक की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर 225 रुपए प्रतिदिन तथा 5850 रुपए प्रतिमाह की थी, जबकि कुक कम हेल्पर का मानदेय मात्र 1452 रुपए महीना है। यानि एक दिन के मात्र 48 रुपए, जो न्यूनतम मजदूरी का चौथा भाग भी नहीं है।
स्कूलों में सुबह 10 से दोपहर 1 बजे तक पोषाहार पकाने का कार्य रहता है। इसके बाद बच्चों को खाना खिलाकर बर्तन साफ करने व अन्य कार्य करने-करते दोपहर की 3 बज चुकी होती है। ऐसे में महिलाएं अन्य जगह मजदूरी या मनरेगा जैसे कार्यस्थलों पर भी नहीं जा पातीं। अधिकतर कुक कम हेल्पर पोषाहार पकाने के कार्य के अतिरिक्त दूसरी मजदूरी नहीं कर पा रहीं, जबकि घर चलाने के लिए यह मानदेय काफी कम है। मानदेय तो कम है ही, यह भी राशि समय पर नहीं मिलती है। वे कहती हैं कि कम से कम 3000 रुपए तो देने ही चाहिए।
कुक कम हेल्पर आर्थिक रूप से कमजोर एवं अनपढ़ महिलाएं ही हैं। इनके मानदेय को लेकर कोई संगठन प्रयासरत भी नहीं है। ऐसे में इनकी आवाज सरकार के कानों तक नहीं पहुंच पाती।