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Exclusive : पहले था बद्री, अब गढबोर, फिर भी पहचानते हैं ‘चारभुजा’ के नाम से

locationराजसमंदPublished: Sep 09, 2019 04:57:16 pm

Submitted by:

laxman singh

1444 ईस्वी से भी पुराना है चारभुजानाथ का मंदिर – रिकॉर्ड में है गढबोर, फिर भी बोलते चारभुजा

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Exclusive : पहले था बद्री, अब गढबोर, फिर भी पहचानते हैं ‘चारभुजा’ के नाम से

लक्ष्मणसिंह राठौड़ @ राजसमंद

भगवान चारभुजानाथ की नगरी का पौराणिक नाम बद्री था, जो 1444 ईस्वी के बाद गढबोर बन गया। फिर भी लोग गढबोर के नाम से कम और चारभुजा के नाम से ज्यादा जानते हैं। राजस्व रिकॉर्ड के साथ ग्राम पंचायत, तहसील, पटवार सर्कल भी गढबोर के नाम से ही जाने जाते हैं, जबकि पुलिस थाना चारभुजा के नाम से है। इस तरह यह कस्बा अब गढबोर से ज्यादा चारभुजा के नाम से ही विख्यात होकर जगजाहिर हो गया। राजस्व रिकॉर्ड में कस्बे का नाम गढबोर है, मगर कस्बे की पहचान चारभुजा से ही है। इस लेख में कस्बे का नाम बद्री अंकित है। संभवत: इसी कारण चारभुजाजी को बदरीनाथ भी कहा जाता हैं। इसके तहत यह मंदिर ईस्वी 1444 से भी पुराना है। बताया जाता है कि करीब 5285 वर्ष पहले पांडवों के हाथों मंदिर श्रीकृष्ण के चतुर्भुज स्वरुप को स्थापित किया गया था। मंदिर में एक विक्रम संवत 1501 का तदनुसार ईस्वी सन् 1444 का अभिलेख है, जिसके अनुसार खरवड जाति के रावत महिपाल, उनके पुत्र लक्ष्मण, उसकी पत्नी क्षिमिणी व उसके पुत्र झाझा ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। मंदिर के बाहर लगे शिलालेखों में एक महाराणा भीम सिंह के समय विक्रम संवत 1852 का है। मंदिर से बाहर निकलने पर कुछ दूरी पर भीम कुंड है, जिसका निर्माण भी अद्भुत है।
800 पुजारी परिवार, बारी-बारी से करते हैं पूजा
मेवाड़ व मारवाड़ के आध्य चारभुजानाथ मंदिर में सेवा पूजा की परंपराएं भी अनूठी है। यहां गुर्जर समाज के परिवार ओसरे (अपनी बारी) से पूजा करते हैं। गढबोर में 800 परिवार है, जिनमें कोई परिवार हर चौथे वर्ष पूजा करता है, तो किसी परिवार की पूजा करने की बारी 10 से 45 वर्ष बाद आती है। हर अमावस को ओसरा बदलता है, जिससे अगला परिवार मुख्य पुजारी बन जाता है। पहले ओसरे का निर्धारण गोत्र व परिवार की संख्या के अनुसार था, जो अब भी चल रहा है। ओसरे के दौरान पाट पर बैठ चुके पुजारी को एक माह तक तप, मर्यादा में रहना पड़ता है, जिसके परिवार या सगे संबंधियों में मौत होने पर भी पूजा का दायित्व निभाना होता है। पूजा के ओसरे में एक महीने हर प्रकार के व्यसन से दूर रहने, बदन पर साबुन नहीं लगाने, ब्रह्मचर्य पालन की मर्यादाएं निभाते हैं। भगवान की रसोई में ओसरा निभाने वाले परिवार द्वारा चांदी के कलश में लाया जल ही काम में लिया जाता है। फागोत्सव में पंद्रह दिन और जलझूलनी पर कुछ दिन सोने के कलश में जल लाया जाता है।
आरती- भोग श्रीनाथजी की तरह
मंदिर में आरती के दौरान जब गुर्जर परिवार के पुजारी जिस प्रकार से मूर्ति के समक्ष खुले हाथो से जो मुद्रा बनाते है और जिस प्रकार नगाड़े व थाली बजती है, वो पूर्णत वीर भाव के प्रतीक है। शायद इसीलिए चारभुजाजी की उपासना गुर्जरों द्वारा की जाती है। आरती व भोग लगभग श्रीनाथजी की तरह है, मगर यहांदर्शन सदैव खुले रहते हैं। इसमें पांच दर्शन मुख्य हैं। मंगला में मक्खन, राजभोग में केसरिया भात, लापसी, सादा चावल, शाम को कसार, दूध का प्रसाद चढ़ता है।
गर्भ गृह में सोने-चांदी की परत
चारभुजानाथ मंदिर के गर्भ गृह के मुख्य द्वार पर सोने की परत चढ़ी हुई है। अन्दर सोने व कुछ जगह चांदी की परतें चढ़ी है। मुख्य मूर्ति एक ऊंचे आसन पर बिराजित है और चारभुजानाथ की मूर्ति सुदर्शन स्वरुप की है, जिसकी चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और कमल पुष्प धारण किए हुए हैं। यह स्वरुप दुष्टों का संहार करने वाला है। इस मूर्ति को अत्यंत प्राचीन और बड़ी चमत्कारी माना जाता है। मूर्ति के नेत्र स्वर्ण निर्मित और अद्भुत है। शृंगार और पूजा पद्धति में भी शौर्य और पराक्रम के भाव निहित है।
शंख- चक्र चंहु हाथ बिराजे, गदा पदम् धूति दामिनी लाजे।
रूप चतुर्भुज महामन भाता, फल पुरुषार्थ चतुष्टय दाता।
दुष्ट जनन के हो तुम काला, गो ब्राह्मण भक्तन प्रतिपाला।।
ऐसा है मंदिर का आंतरिक स्वरुप
मंदिर की सीढियों पर दोनों तरफ हाथी पर महावत सवार मूर्तियां है, जिससे आगे मुख्य प्रवेश द्वार चांदपोल बनी हुई है। उसके दोनों तरफ द्वारपाल (जय विजय) की आदमकद मूर्तियां है। द्वार में प्रवेश करते ही मंदिर की तरफ मुख किए हुए पांच गरुड़ गरुड़ आसीन है, जिनके ऊपर गोप वंशज सुराजी बगड़वाल की मूर्ति है। उनके बारे में विस्तृत जानकारी अंकित है। निज मंदिर के बाहर मंडप के दायीं और बायीं तरफ दो नर व नारायण के मंदिर बने हुए हैं, जो वर्तमान में बंद है। मुख्य मंदिर के बाहर दाईं तरफ दो छोटे छोटे देवालय है, जिसमें एक विधाता माता बिराजित है, तो दूसरे में ब्रम्हा, विष्णु, महेश है। दोनों में अत्यंत प्राचीन मूर्तिया है। मुख्य मंदिर के बायीं तरफ एक दो मंजिला पांडाल बना है, जिसमे श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अत्यंत सुन्दर चित्रांकन है। मंदिर के ठीक सामने जितना ऊंचा नक्कारखाना है, जिसमें मध्य भाग में माताजी की मूर्तियां है। उसके नीचे शिलालेख अंकित है। नक्कारखाने में दायी तरफ प्रवेश करते ही बजरंगबली की मूर्ति है और आगे गणेशजी की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर की सीढिय़ों के दायी तरफ चबूतरे पर तीन प्राचीन शिलालेख में मंदिर का इतिहास अंकित है।
लुटने आए मराठो को दान देकर भागना पड़ा
किवदंती है कि चारभुजानाथ मंदिर ने अनेक आक्रमण झेले है, मगर प्रभु के चमत्कार से कुछ नहीं हुआ। एक बार मराठा ने मंदिर को लूटने के लिए आक्रमण किया, तो भौरों ने सेना पर इतने डंक मारे किए कि सेना को उल्टे पांव लौटना पड़ा। यही नहीं, मराठों के साथ लूटा हुआ जो भी माल था, वह दान कर प्राणों की रक्षा कर भाग गए।
ओसरे से होती है पूजा
गुर्जर समाज के आठ सौ परिवार है, जो अपनी बारी के आधार पर चारभुजानाथ की पूजा करते हैं। गढबोर में चारभुजानाथ मंदिर के प्रति मेवाड़, मारवाड़ के साथ मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गुजरात क्षेत्र के लोगों का मुख्य आस्था का केंद्र है।
रामचंद्र गुर्जर, वयोवृद्ध पुजारी गढबोर
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