छात्र राजनीति और मजबूत पारिवारिक पृष्ठभूमि
1. हरिओम सिंह राठौड़ (22 फरवरी, 1995 से 13 फरवरी 2000) हरिओम सिंह छात्र राजनीति से मुख्य राजनीति में आए। मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय की केन्द्रीय कार्यकारिणी के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। पृष्ठभूमि देखें तो केलवा ठिकाने की राजनीति में पकड़ रही है। केलवा ठिकाने के कैप्टन दौलत सिंह राजसमंद के प्रथम प्रधान रहे। हरिओम सिंह के चचेरे भाई रघुवीर सिंह राठौड़ भी राजसमंद प्रधान और उदयपुर के उपजिला प्रमुख भी रहे। इस परिवार का राजनीति में लम्बा प्रभाव था। बैकग्राउण्ड मजबूत होने से हरिओम सिंह राठौड़ को मौका मिला। प्रदेश की राजनीति के दिग्गज भैरू सिंह शेखावत की भी खास पसंद थे। राठौड़ को दो बार कुम्भलगढ़ से चुनाव लड़वाने की बात चली, मगर उन्होंने मना कर दिया। बाद में 13 भाजपा और 12 कांग्रेस सीटों की गणित के बीच 1995 में जिला प्रमुख चुने गए। ग्रामीण इलाके में भाजपा को स्थापित करने का श्रेय इन्हें जाता है। राजसमंद सांसद रहते हुए मई 2019 में इनका निधन हो गया।
राजनीति में उनका सीधा प्रवेश जिला प्रमुख के रूप में ही हुआ। वह अब तक की एकमात्र महिला जिला प्रमुख रही हैं। इस बार भी जिला प्रमुख का पद ओबीसी महिला आरक्षित होने के कारण उनके फिर से चुनाव लडऩे की चर्चाएं खूब चली थीं, लेकिन उन्होंने फॉर्म नहीं भरा।
4. नंदलाल सिंघवी (14 फरवरी 2008 से 3 मार्च 2009) सिंघवी उस वक्त उप जिला प्रमुख थे। नरेन्द्र सिंह के हादसे में निधन के बाद स्वाभाविक तौर पर उन्हें यह पद मिला। वह कार्यवाहक जिला प्रमुख रहे। सिंघवी जमीन से जुड़े और लो प्रोफाइल कार्यकर्ता रहे हैं। संघ के नजदीकी भी माने जाते हैं। गुलाबचंद कटारिया की पसंद रहे हैं। वरिष्ठता के आधार पर भी व शक्ति संतुलन के मद्देनजर भी जिला प्रमुख बनने का अवसर मिला। उस समय हरिओम सिंह राठौड़ के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। कुम्भलगढ़ विधायक सुरेन्द्र सिंह राठौड़ कटारिया के विरोधी माने जाते थे, लेकिन इस मसले पर समर्थन कर दिया था। सिंघवी 11 माह जिला प्रमुख रहे।
5. नारायण सिंह भाटी (4 मार्च 2009 से 14 फरवरी 2010) जिले के बड़े उलटफेर में से एक था यह। नरेन्द्र सिंह सोलंकी के निधन के बाद सदस्यों में से जिला प्रमुख का निर्वाचन तय हुआ। केवल 7 सीटें कांग्रेस के पास थीं, जबकि बीजेपी के 17 सदस्य थे। भाजपा दो खेमों में बंट चुकी थी। विधायक किरण माहेश्वरी गुट ने भाजपा से गणेशदास वैष्णव को उम्मीदवार बनाया, जिससे कटारिया गुट नाराज हो गया। मतदान हुआ तो केवल सात सदस्यों वाली कांग्रेस के उम्मीदवार भाटी भाजपा की भितरघात से विजेता घोषित हुए। खुद कांग्रेस नतीजों से चौंक गई थी। भाटी दो बार जिला परिषद सदस्य रहे, पिता लम्बे समय तक राज्यावास सरपंच व राजसमंद उपप्रधान रहे। भाटी युवक कांग्रेस अध्यक्ष व बाद में जिला कांग्रेस अध्यक्ष बने।
6. किशनलाल गमेती (15 फरवरी 2010 से 10 फरवरी 2015 तक) कांग्रेस के दिग्गज नेता डॉ. सीपी जोशी के निर्वाचन क्षेत्र नाथद्वारा के आदिवासी बाहुल्य इलाके से चुनकर किशनलाल गमेती खमनोर पंचायत समिति के प्रधान भी रह चुके थे। सीपी के भरोसेमंद तो थे ही, कांग्रेस के मजबूत वोट बैंक आदिवासी समुदाय का उभरता, निर्विवाद चेहरा भी थे। उन्हें सीपी का वरदहस्त प्राप्त था। खमनोर प्रधान रहने के दौरान उन्हें राजनीति का अनुभव हो गया था। जब जिला प्रमुख की सीटों का आरक्षण हुआ तो सबसे मजबूत दावेदार बन गए। जिला परिषद में उस समय जितने सदस्य चुनकर आए, उनमें से ज्यादातर सीपी की पसंद पर चुनाव लड़े थे। भाजपा केवल दो सीट तक सिमट गई थी। कांग्रेस ने प्रचण्ड प्रदर्शन किया था।
(11 फरवरी 2015 से अब तक) भाजपा भीम-देवगढ़ में मजबूत हो चुकी थी। तीन बार लगातार विधायक रहे हरि सिंह रावत की पसंद पर सालवी चुनाव लड़े। बताया जाता है कि खेत में कार्य करने के दौरान उन्हें इसके लिए राजी कर लिया गया। सभी सदस्य जीतकर आए तो संख्याबल में किरण गुट व हरि सिंह रावत गुट का दबदबा था। सुरेन्द्र सिंह राठौड़ गुट के 6, कल्याण सिंह चौहान गुट के 5 बाकी सदस्यों के अलावा बाकी 14 सदस्य किरण गुट के माने जाते हैं। एससी आरक्षित सीट पर किरण गुट ने सालवी को बैठा दिया। पंचायती राज चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका लगा था, जब पूरी की पूरी 25 सीटें भाजपा के खाते में चली गई थीं। कांग्रेस को सब जगह मुंह की खानी पड़ी। प्रवेश कुमार सबसे कम उम्र के जिला प्रमुख रहे हैं।